यह पुराना मसला है और इस पर कई दफा निर्णय हो चुका है। संविधान के अनुच्छेद-19 में स्पष्ट लिखा हुआ है। इस अनुच्छेद में हमें बोलने की आजादी है लेकिन जायज प्रतिबंध भी हैं। लेकिन इन दोनों का फर्क ही निर्धारित करना होता है।
अगर आपकी बयानबाजी, लेखन, भाषण से हिंसा का खतरा है, वैमनस्य बढऩे या धार्मिक भावनाएं आहत होने का खतरा है और किसी को अपमानित होने का खतरा है तो यहां जायज प्रतिबंध शुरू हो जाता है। दुनिया के मुकाबले भारत का इस मसले पर रिकॉर्ड कमजोर रहा है।
हमारे देश में प्रतिबंध के लिए याचिकाएं लगती रही हैं और स्वीकार होती रही हैं। कई फिल्मों-किताबों पर प्रतिबंध लगा है।
बेजा इस्तेमाल न हो
भारत में संवैधानिक स्थिति ‘फ्रीडम विथ रीजऩेबल रिस्ट्रिक्शंस‘ है। यहां जायज प्रतिबंध हमेशा प्रमुख रहा है। पश्चिम में आजादी ही प्रमुख रहती है। हमारे यहां कितनी ही किताबें-फिल्मों के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरते हैं। हालांकि एक न्यूनतम पक्ष तो सही है कि अगर कोई अपनी आजादी का इस्तेमाल इस तरह करें कि उससे वैमनस्य और कटुता, हिंसा की आशंका बढ़े तो वह रोका जाना चाहिए।
सुब्रमण्यम स्वामी बेवजह एक बड़े आदर्श का इस्तेमाल करके ओछी बातों को आगे बढ़ाना चाहते हैं। उनका यह ऊंचा आदर्श है – अभिव्यक्ति की आजादी। उन्हें लगता है कि अमरीका में जिस तरह अभिव्यक्ति की आजादी का बेजा इस्तेमाल होता है, वैसा ही वे भारत में कर सकते हैं। पर यहां न तो कानून में इसकी इजाजत है, न संविधान में है न ही सुप्रीम कोर्ट के आदेशों में है। भारत सरकार की एक मानक स्थिति रही है कि बोलने या लिखने के नाम पर वैमनस्य या भावनाओं को आहत करने की छूट नहीं होनी चाहिए। यही उसने सुप्रीम कोर्ट में सुब्रमण्यम स्वामी के मसले पर जवाब में कही है।
भारत में संतुलन है
मेरा मानना है कि हमारे बुनियादी ढांचे में दोनों बातें हंै, अभिव्यक्ति की आजादी और उचित प्रतिबंध। अब सुप्रीम कोर्ट को निर्णय करना होता है कि वह किस हिस्से को महत्व देता है। उस वक्त बहुत जरूरी क्या है, इसकी सीमा सुप्रीम कोर्ट बदलता करता रहा है। किसी मामले में बहुत सख्त व्याख्या हो जाती है। किसी मामले में बहुत उदार व्याख्या हो जाती है। अगर सुप्रीम कोर्ट किसी मामले में आजादी की बात करता है और किसी दूसरे मामले में प्रतिबंध की बात करता है तो इसमें कोई गड़बड़ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट इन दोनों ही पहलुओं से इनकार नहीं कर सकता।
न तो वह बहुत आजादी की बात करेगा न ही बहुत प्रतिबंध की। स्वामी की यह बात सही है कि आईपीसी के मौजूदा प्रावधानों का दुरुपयोग बहुत हुआ है। मसलन, सोनिया गांधी पर किताब लिखी गई तो प्रतिबंध लगा दिया गया। स्वामी का तर्क तो सही है पर वे इसका उपयोग जिस उद्देश्य के लिए आजादी का इस्तेमाल करना चाहते हैं, वह बहुत पवित्र नहीं है।
भले ही प्रावधानों में सेफगार्ड नहीं हैं। जिन चीजों पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए था, उन पर भी प्रतिबंध लग गया। पर स्वामी या तोगडिय़ा या साध्वी जो बातें करते हैं, वे न्यूनतम प्रतिबंध के दायरे में भी आता है। एक विरोधाभास यह भी है कि केंद्र सरकार सुब्रमण्यम स्वामी के खिलाफ तो मामले सही बता रही है पर उसी सरकार के मंत्री जो घृणास्पद बयानबाजी करते उन्हें तो बाहर नहीं निकाला गया। ऐसे दोहरे मापदंड क्यों अपनाए जा रहे हैं।
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