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लोढा कमेटी बनाम बीसीसीआई : पैसे की लड़ाई में होती है एक चौथाई देश की अनदेखी

Published: Sep 30, 2016 04:17:00 pm

पूर्वी भारत के कई राज्यों के लाखों क्रिकेटर आज भी क्रिकेट की सर्वोच्च
राष्ट्रीय संस्था के रहमोकरम से महरूम हैं।लोढा कमेटी की सिफारिशों में
इन्हीं विसंगतियों को दूर करने की बात कही गई, लेकिन बीसीसीआई मानने के लिए
तैयार नहीं है।

Bcci Doesn't want to see cricket in these states

Lodha Commitee Vs BCCI : Cricket Ruled Out In One Fourth Country Only Because Of Money

कुलदीप पंवार

नई दिल्ली। ‘हम पूरे देश में क्रिकेट के विकास और संचालन के लिए प्रतिबद्ध हैं।’ ये लाइनें हैं भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के संविधान की, जिसके तहत वह पूरे देश में क्रिकेट चलाने का दावा करता है। लेकिन यदि आपको यह कहा जाए कि बीसीसीआई पूरे देश के खिलाडिय़ों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता और खासतौर पर पूर्वी भारत के कई राज्यों के लाखों क्रिकेटर आज भी क्रिकेट की इस सर्वोच्च राष्ट्रीय संस्था के रहमोकरम से महरूम हैं तो शायद आपको बहुत अजीब लगेगा। लेकिन यही सच है। लोढा कमेटी की सिफारिशों में इन्हीं विसंगतियों को दूर कर हर एक को मौका देने की बात कही गई, लेकिन उसे मानने के लिए भी बीसीसीआई तैयार नहीं है।

31 सदस्यों वाले बोर्ड से 9 भारतीय राज्य गायब

कहने के लिए बीसीसीआई के सदस्यों की संख्या 31 है, लेकिन 31 राज्य एवं क्लब एसोसिएशनों में भारतीय गणराज्य के 9 राज्यों को आज तक स्थान नहीं दिया गया है। इनमें केंद्र शासित प्रदेशों की बात ही नहीं की जा रही वरना यह संख्या दर्जन की संख्या के करीब पहुंच सकती है। बीसीसीआई की अनुकंपा से वंचित इन राज्यों में नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य ही नहीं बल्कि देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक बिहार और एक बड़ी जनसंख्या वाले तेलंगाना और उत्तराखंड भी शामिल हैं।


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ये सदस्य राज्यों से अलग हैं बीसीसीआई में

क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया (वेस्ट जोन), नेशनल क्रिकेट क्लब (ईस्ट जोन), ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी (नॉर्थ जोन), रेलवे स्पोट्र्स प्रमोशन बोर्ड (सेंट्रल जोन), सर्विस स्पोट्र्स कंट्रोल बोर्ड (नॉर्थ जोन)

कई राज्यों की खेल रही 3-3 टीमें

एकतरफ जहां 9 राज्यों के लाखों क्रिकेटरों के लिए प्रतिभा दिखाने के कोई मौके नहीं हैं, वहीं दूसरी तरफ रणजी ट्रॉफी में रजवाड़ा कालीन प्रथा के आधार पर कुछ राज्यों से कई-कई टीमें अलग-अलग नाम से भाग लेने की हकदार हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इन राज्यों के खिलाडिय़ों के लिए एक नहीं कई मौके अपने लिए रास्ता तलाशने के हैं। बता दें कि लोढा कमेटी ने भी इस व्यवस्था पर दूसरे तरीके से सवाल उठाते हुए एक राज्य से एक ही एसोसिएशन को एक बार में वोट डालने की इजाजत होने की सिफारिश की थी, जिसकी बीसीसीआई ने बहुत खिलाफत की है।

इन राज्यों से हैं कई टीमें

महाराष्ट्र- मुंबई, विदर्भ और महाराष्ट्र।

गुजरात- बड़ौदा, सौराष्ट्र और गुजरात।

आंध्र प्रदेश- हैदराबाद और आंध्र प्रदेश।


बिहार के लिए तर्क अजब

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि झारखंड के गठन से पहले बिहार को बीसीसीआई की तरफ से पूर्ण सदस्य का दर्जा हासिल था, लेकिन राज्य बंटवारे के बाद एक पहले से चली आ रही एसोसिएशन का स्थान झारखंड की नवगठित एसोसिशन को वहां अधिक सुविधाएं उपलब्ध होने के नाम पर दे दिया गया। बिहार को दोबारा पूर्ण दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे आदित्य वर्मा कहते हैं कि यह राज्य के लाखों क्रिकेटरों के साथ धोखा है, जिनका करियर सिर्फ क्लब क्रिकेट तक सीमित रह जाता है। तेलंगाना के लिए भले ही उसके हालिया गठित होने का तर्क दिया जा रहा है, लेकिन यही तर्क झारखंड के मामले में लागू नहीं किया गया था।



…तो उत्तराखंड पर राजनीति हावी!

उत्तर प्रदेश से अलग होकर राज्य बने उत्तराखंड के क्रिकेटर भी हैरान हैं। उसी के साथ गठित झारखंड जहां अपने निर्माण के पहले दिन से रणजी ट्रॉफी में जलवा दिखाने का मौका पा रहा है और इसकी बदौलत देश को महेंद्र सिंह धौनी जैसा कप्तान भी दे पाया, वहीं उत्तराखंड के क्रिकेटर आज भी रणजी ट्रायल्स में उत्तर प्रदेश के खिलाडिय़ों के पीछे की कतार में खड़े दिखाई देते हैं।

उत्तराखंड को अलग मान्यता नहीं मिलने के पीछे वहां बनी कई राज्य एसोसिएशनों में आपसी विवाद की बात कही जाती है, लेकिन दबी-छिपी जुबां से वहां की क्रिकेट से प्रमुख तौर पर जुड़े लोग यह भी दावा करते हैं कि यूपी क्रिकेट एसोसिएशन में हावी गुट उत्तराखंड की जिला एसोसिएशनों के वोट और वहां के संसाधनों का लालच नहीं छोड़ पा रहा है।

बता दें कि यही गुट बीसीसीआई में भी अहम व निर्णायक स्थिति में मौजूद है। ऐसे में उत्तराखंड के क्रिकेटर हैरान हैं कि उनके साथ ही गठित झारखंड के बाद अब छत्तीसगढ़ को भी जहां रणजी के जरिए टीम इंडिया के दावे ठोकने का मौका मिलने जा रहा है, वहीं वे क्यूं दूसरे राज्यों का रुख करने को मजबूर हैं।



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यह तीन केस महज छोटे से उदाहरण हैं कि कैसे राज्य संघों के बीच होने वाले बीसीसीआई के मुनाफे के बंटवारे की से मिली रकम की बाद में बंदरबांट की जाती है। बोर्ड की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दिए गए एक अधिकृत आंकड़े की ही बात करें तो पिछले पांच साल मं 100 से 200 करोड़ रुपये तक हैसियत के हिसाब से अपने हर सदस्य एसोसिएशन व क्लब को हिस्सेदारी के तौर पर बीसीसीआई की तरफ से दिए गए हैं। इसमें भी इंफ्रास्ट्रक्चर और क्रिकेट के लिए बहुत छोटी रकम दी गई, जबकि अन्य मद में बहुत मोटी रकम।

बीसीसीआई के कार्य पर नजदीक नजर रखने वाले बताते हैं कि नए एसोसिएशन सदस्य बनाए जाने की हालत में इस करोड़ों रुपये की रकम में कटौती होकर नए सदस्यों को भी पैसा देना होगा और कोई भी पुरानी एसोसिएशन इस बात के लिए तैयार नहीं है। इसके चलते भी नए सदस्य बनाए जाने के नाम पर कोई एसोसिएशन सहयोग करने को तैयार नहीं होती है। इन सबसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्रिकेट चलाने के नाम पर किस तरह ‘खेल’ किए जाते हैं।


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बीसीसीआई की कार्यप्रणाली बिल्कुल पारदर्शी नहीं है। 1975 में बिहार ने मुंबई के साथ फाइनल मैच खेला था और अब उसके क्रिकेटर रणजी मैच खेलने के लिए भी तरस रहे हैं। बिहार से पूर्ण सदस्य का दर्जा छीनकर झारखंड को दे दिया गया और यहां के क्रिकेटर बेकार हो गए। मेरा संघर्ष बिहार को क्रिकेट मानचित्र में फिर से उसके पुराने स्थान को दिलाने का ही नहीं बल्कि बीसीसीआई की इसी दोहरी कार्यप्रणाली को सुधारने का भी है।

आदित्य वर्मा, अध्यक्ष, बिहार क्रिकेट एसोसिएशन

(आदित्य की ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर बीसीसीआई में सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई थी)

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