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तलवार संग सात फेरे लेकर रानी ने बनवाया था राजरणछोड़ मंदिर

Published: Dec 05, 2015 02:16:00 pm

महाराजा जसवंतसिंह के विक्रम संवत 1952 में देहावसान के बाद रानी ने वृद्धावस्था में जोधपुर में भगवान कृष्ण का भव्य मंदिर बनवाया

kunj bihari temple jodhpur

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सूर्यनगरी के प्रमुख कृष्ण मंदिरों में शुमार राजरणछोडज़ी का मंदिर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह की द्वितीय रानी एवं जामनगर के राजा वीभा की पुत्री जाड़ेची राजकंवर ने बनवाया। सन 1905 में बने मंदिर निर्माण पर रानी ने कुल एक लाख खर्च किए। मात्र नौ वर्ष की आयु में जाड़ेची राजकंवर का विवाह जोधपुर के तत्कालीन राजकुमार जसवंतसिंह के साथ हुआ था। वर्ष 1854 में यह ‘खाण्डा’ विवाह था जिसमें जसवंत विवाह के लिए जामनगर नहीं गए बल्कि उनकी सिर्फ तलवार को वहां भेजा गया। तलवार के साथ राजकुमारी राजकंवर ने सात फेरे लिए थे। विवाह की कुछ रस्में जालोर में भी पूरी की गर्इं।

रानी राजकंवर ने बनवाया था मंदिर

विवाह के बाद राजकंवर जोधपुर पहुंची लेकिन चंद दिनों बाद जामनगर लौट गईं। जब वह तेरह वर्ष की हुई तब पुन: ससुराल जोधपुर आई तो फिर कभी लौटकर अपने पीहर नहीं गई। एक बार मेहरानगढ़ में प्रवेश करने के बाद वह जीवन भर दुर्ग से बाहर नहीं निकली। रानी राजकंवर प्रतिवर्ष सवा लाख तुलसी दल अभिषेक के लिए द्वारिका भेजती और यह तुलसी दल पुजारी तथा कामदार लेकर प्रतिवर्ष द्वारिका जाते थे। महाराजा जसवंतसिंह के विक्रम संवत 1952 में देहावसान के बाद रानी ने वृद्धावस्था में जोधपुर में भगवान कृष्ण का भव्य मंदिर बनवाया। उस समय यह मंदिर जोधपुर परकोटे के बाहर बाईजी का तालाब के पास एक ऊंचे रेतीले टीले पर बनवाया गया।

पूजा के लिए कभी मंदिर में नहीं गई थी रानी

जोधपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने स्थित आस-पास की जमीन को तीस फीट ऊंचा बनाया गया ताकि रानी राजकंवर मेहरानगढ़ की प्राचीर से दर्शन कर सकें। रानी ने अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी दुर्ग की प्राचीर नहीं लांघी। मंदिर के निर्माण के बाद रानी किले की प्राचीर से ही संध्या के समय खड़ी होकर दर्शन करती थीं। मंदिर का पुजारी आरती की ज्योत को मंदिर के चौक के दरवाजे के बाहर लेकर खड़ा होता था। किले की प्राचीर से रानी उसी ज्योत के दर्शन करती थीं। स्वयं रानी राजकंवर कभी मंदिर में दर्शनार्थ नहीं पहुंचीं।



यूं पड़ा मंदिर का नाम राजरणछोड़

रानी के आराध्य कृष्ण को रणछोड़ भी कहा जाता है। रानी ने अपने नाम राज के साथ अपने आराध्य रणछोड़ का नाम जोड़कर मंदिर का नाम राजरणछोड़ मंदिर रखा। राजकंवर के पुत्र महाराजा सरदारसिंह की मौजूदगी में 12 जून 1905 के दिन मंदिर को भक्तों के दर्शनार्थ खोला गया। मंदिर के नीचे वाले भाग में कई कोटडि़या बनाई गर्इं जो अब दुकानों का रूप ग्रहण कर चुकी हैं। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को आवासीय सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से एक सराय का निर्माण भी करवाया था जो आज जसवंत सराय के नाम से जानी जाती है।

चांदी के झूले में श्रावण उत्सव

वर्तमान में देवस्थान प्रबंधित राजकीय प्रत्यक्ष प्रभार मंदिर में जन्माष्टमी, अन्नकूट व श्रावण मास में झूलों का आयोजन होता है। श्रावण मास में विशाल चांदी से निर्मित झूले में ठाकुरजी को विराजित कर दशनार्थ रखा जाता है। मंदिर के पुजारी हरिलाल शिवलाल ठाकर ने बताया कि उनके परदादा रानी राजकंवर के साथ दहेज में साथ आए थे। मंदिर में पहले वर्ष भर में कुल 21 ठाकुरजी के उत्सव होते थे जो अब घटकर मात्र दो तीन रह गए हंै।

कलात्मक तोरण द्वार

राजरणछोड़ मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार कलात्मक है। लाल पत्थर से निर्मित दो विशाल स्तंभ से सुसज्जित स्तंभों पर बेल बूटों तथा सुंदर फूल पत्तियों की खुदाई तथा शीर्ष से दोनों स्तंभों को जोडऩे वाले मेहराब का आकर्षण देखते ही बनता है। मंदिर के अग्र भाग के दोनों सिरों पर कलात्मक छतरियां और मुख्य द्वार से लगभग तीस सीढि़यां पूरी होने के बाद एक तोरणद्वार निर्मित है। सीढि़यों के दोनों तरफ खुले स्थल पर बारादरियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में काले मकराना पत्थर को तराश कर बनाई गई भगवान रणछोड़ की प्रतिमा स्थापित है।
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