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पुण्यतिथी विशेष : आजादी के बाद बापू की जीने की इच्छा आखिर क्यों हुई खत्म?

आजादी से पहले 125 वर्षों तक जीने की इच्छा व्यक्त करने वाले बापू स्वतंत्रता और विभाजन के बाद देश में भडक़े साम्प्रदायिक दंगों से निराश हो गए थे।

Jan 30, 2016 / 10:28 am

राखी सिंह

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गांधीजी वो शख्शियत जिन्होंने भारत देश को आजादी दिलाई। अहिंसा के पथ पर चलकर बड़ी से बड़ी बाधाओं को पार करने वाले राष्ट्रपिता ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपने मजबूत इरादों के दम पर ही नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया। स्वतंत्रता पाने के बाद बापू में जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी। देश के माहौल ने उनके मन को झकझोर कर रख दिया था जिससे वे बेहद दुखी थे।

30 जनवरी, 1948 को एक बंदूक से तीन गोलियाँ निकलीं। ‘धाँय…धाँय…धाँय…’और इन गोलियों के बाद एक आखिरी आवाज निकली ‘है राम।’ 68 साल पहले आज ही के दिन अहिंसा की प्रतिमूर्ति हिंसा की शिकार हुई थी। 30 जनवरी, 1948 का वह दिन भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति दिलाने के महासंग्राम के महानायक मोहनदास करमचंद गांधी का अंतिम दिन था और मुख से निकला हे राम’ अंतिम शब्द था। गांधीजी ने अपने जीवन के 12 हजार 75 दिन स्वतंत्रता संग्राम में लगाए, परंतु उन्हें आजादी का सुकून मात्र 168 दिनों का ही मिला।

नाथूराम गोडसे की बंदूक से निकली तीन गोलियाँ बापू के शरीर को छलनी करती गईं। पहली गोली लगते ही बापू का कदम बढ़ाने को उठा पैर थम गया, लेकिन वे खड़े रहे। दूसरी गोली लगी और बापू का सफेद वस्त्र रक्तरंजित हो गया। उनका चेहरा सफेद पड़ गया और वंदन के लिए जुड़े हाथ अलग हो गए। क्षण भर वे अपनी सहयोगी आभा के कंधे पर अटके रहे। उनके मुंह से शब्द निकला हे राम। तीसरी गोली चलते ही बापू का शरीर ढेर होकर धरती पर गिर गया, चश्मा निकल गया और पैर से चप्पल निकल गई।इन तीन गोलियों ने दो सौ वर्षों तक भारत को गुलामी की जंजीर में जकड़े रखने वाले अंग्रेजों को अहिंसक आंदोलन के जरिए झुका देने वाले महात्मा गांधी को हमेशा के लिए खामोश कर दिया। तीन गोलियों ने बापू के तीन दशक के संघर्ष को पूरा कर दिया।

पहली गोली बापू के शरीर के दो हिस्सों को जोडऩे वाली मघ्य रेखा से साढ़े तीन इंच दाईं तरफ व नाभि से ढाई इंच ऊपर पेट में घुसी और पीठ को चीरते हुए निकल गई। दूसरी गोली उसी रेखा से एक इंच दाईं तरफ पसलियों के बीच होकर घुसी और पीठ को चीरते हुए निकल गई। तीसरी गोली सीने में दाईं तरफ मध्य रेखा से चार इंच दाईं ओर लगी और फेफड़े में जा घुसी। आभा और मनु ने गांधीजी का सिर अपने हाथ पर टिकाया। उन्हें बिरला भवन स्थित उनके खंड में ले जाया गया। आंखें आधी खुली हुई थीं। लग रहा था शरीर में अभी जान बची है। कुछ देर पहले ही बापू के पास से उठ कर गए सरदार पटेल तुरंत वापस आए। उन्होंने बापू की नाड़ी देखी। उन्हें लगा कि नाड़ी मंद गति से चल रही है। इसी बीच वहां हाजिर डॉ. द्वारकाप्रसाद भार्गव पहुंचे। गोली लगने के दस मिनट बाद पहुंचे डॉ. भार्गव ने कहा, बापू को छोड़ कर गए दस मिनट हो चुके हैं।” मौके पर उपस्थित जनसमुदाय सिसक-सिसक कर रोने लगा।

कुछ देर बाद डॉ. जीवराज मेहता आए और उन्होंने बापू की मृत्यु की पुष्टि की। जानकारी मिलते ही पं. जवाहरलाल नेहरू पहुंचे। नेहरू गांधीजी के मृत शरीर के पास घुटनों के बल बैठे और बापू के रक्तरंजित वस्त्र में मुंह डाल कर रुदन करने लगे। इसके बाद गांधीजी के पुत्र देवदास और मौलाना अबुल कलाम आजाद भी पहुंचे। अगले दिन सुबह होते ही गांधीजी के सहयोगियों ने उनकी पार्थिव देह को नहलाया। गले में हाथ से काती हुई सूत की माला और एक अन्य माला पहनाई। ग्यारह बजे गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास नागपुर से पहुंचे। नई दिल्ली के अल्बुकर्क रोड पर से बापू की अंतिम यात्रा शुरू हुई, जिसमें करीब पंद्रह लाख लोग पहुंचे। सायं 4 बज कर 20 मिनट पर बापू की पार्थिव देह यमुना किनारे पहुंची और माहौल च्महात्मा गांधी की जय’ के नारों से गूंज उठा।

अब जीने की इच्छा नहीं

आजादी से पहले 125 वर्षों तक जीने की इच्छा व्यक्त करने वाले बापू स्वतंत्रता और विभाजन के बाद देश में भडक़े साम्प्रदायिक दंगों से निराश हो गए थे। उन्होंने आजादी के बाद 2 अक्टूबर, 1947 को पहली और आखिरी बार मनाए गए जन्म दिन के मौके पर कहा था,अब अधिक जीने की इच्छा नहीं है। मेरे बोल का वजन नहीं पड़ता है। अक्सर इंसान किसी लक्ष्य के लिए संघर्ष करता है, तो उसका उस लक्ष्य को पाने के बाद उसे भोगने की भी इच्छा रखना भी स्वाभाविक है, लेकिन महात्मा गांधी का जीवन उस इंसान जैसा साबित हुआ, जो पेड़ तो लगाता है, लेकिन उसकी छाँव और फल की अपेक्षा नहीं करता।

दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए महात्मा गांधी ने 15 अगस्त, 1947 तक इस आंदोलन में हिस्सा लिया। कुल मिला कर उन्होंने 12 हजार 75 दिन स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित किए, लेकिन जिस आजादी के लिए उन्होंने जीवन के इतने दिन (करीब 27 वर्ष) समर्पित किए, उस आजादी की खुली हवा में वे केवल 168 दिन ही सांस ले सके। जीवन का अंतिम महीना गांधीजी के जीवन का अंतिम माह जनवरी-1948 था। गांधीजी 1 व 2 जनवरी को दिल्ली में थे। 3 जनवरी को उन्होंने दिल्ली में निर्वासितों की छावनी का दौरा किया। 4 से 12 जनवरी तक दिल्ली में रहे। 12 जनवरी को हिन्दू-मुस्लिम दंगों से दु:खी गांधीजी ने अगले दिन से अनिश्चितकालीन उपवास के निर्णय की घोषणा की।

गवर्नर जनरल माउंटबेटन से मिले। 13 जनवरी को दिल्ली में उपवास शुरू। माउंट बेटन की पार्टी में नहीं जा सके, परंतु अन्य आमंत्रित साथियों को भेजा। 14 को उपवास जारी। 15 जनवरी को उपवास के दौरान प्रार्थना, प्रवचन। 16 को जनवरी को उपवास के दौरान दिए प्रवचन में कहा, हिन्द-पाकिस्तान में शांति नहीं होती, तो मैं जीना नहीं चाहता।’ 17 जनवरी को हालत बिगड़ी। 18 जनवरी को दोनों समुदाय के लोगों ने हथियार डाले। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने संतरे का रस पिला कर उपवास छुड़ाया। 20 जनवरी को प्रार्थना सभा में बम धमाका। 21 को बापू ने कहा, च्बम फेंकने वाले पर दया रखना।’ 26 जनवरी को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में हिस्सा लिया। 27 जनवरी को बापू ने सलाह दी कि अब कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। इस दिन उन्होंने महेर उली कुत्बुद्दीन भतियार दरगाह के वार्षिक मेले में हिस्सा लिया। 29 जनवरी को गांधीजी ने कांग्रेस सेवक-दल का संविधान बनाया। 30 जनवरी को सोराबजी (रुस्तमजी के पुत्र) सपरिवार गांधीजी से मिलने पहुंचे। शाम को प्रार्थना स्थल की ओर रवाना हुए गांधीजी को गोडसे ने गोली मारी। शाम 5.35 बजे गांधीजी की मृत्यु हो गई।

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