– चन्द्रकान्ता शर्मा
बालक
के जन्म के साथ ही शिक्षा के संस्कार का कार्य सभारंभ ले जाता है।
माता-पिता अबोध बच्चों से ही बातें बोलते हैं-जिनमें संस्कार की गंध होती
है तथा वे चाहते हैं कि उनका बच्चा एक सुनागरिक बने और समाज में उसकी एक
पहचान बने। पहचान के लिए जो संस्कार शिक्षा स्वरूप बालकों को दिये जाते है। वे आदर्शो तथा नैतिक मान्यताओं के ही सन्निकट होते है। अबोध काल से
प्रारंभ इस संस्कार भाव को जो गति मिलनी चाहिए, वह औपचारिक शिक्षा की
दीक्षा से कम होने लगती है तथा माता-पिता इस बात से आश्वस्त हो जाते है कि
बच्चा स्कूल जाने लगा है और वह वहीं से तमाम आदर्श व विनम्रतायें सीख रहा
है, जो उसे जरूरी हैं। शनैः-शनैः माता-पिता कतई बेफ्रिक हो जाते हैं
तथा संस्कारों की शिक्षा औपचारिक शिक्षा के बोझ तले दबती चली जाती है
जिससे बच्चों में नैतिक मूल्य शिक्षा का अभाव बढ़ता चला जाने से वह
सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के महत्त्व को नहीं समझ पाता और सुनागरिक निर्माण
का कार्य वहीं ठप्प हो जाता है।
इसके अतिरिक्त
माता-पिता की बढ़ती व्यवस्तता, बदलते जीवन मूल्यों तथा दूरदर्शन संस्कृति
ने भी परिवारों में नैतिक शिक्षा के कार्य में रूकावटें खड़ी की हैं तथा
इसके वातावरण निर्माण की उपेक्षा हुई है। बढ़ता जीवन स्तर तथा उसके लिए
बढ़ता जीवन संघर्ष पारिवारिक संस्कार शिक्षा की बाधा बना है। आज घरों
में भौतिक सुख-सुविधायें बढ़ाने-जुटाने की लालसा बलवती हुई है तथा अभिभावक
अपने बच्चों के प्रति दायित्वों से विमुख हुये हैं। वे विद्यालयों पर
निर्भर हो गये हैं। तीन वर्ष तक तो अवश्य वे सोचते हैं कि बच्चों को नैतिक
मूल्यों की घुट्टी पिला पाते हैं, लेकिन वे इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं
कि तीन वर्ष की अबोध आयु अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं करा पाती इसलिए उनके
द्वारा दिये जाने वाले संस्कार इस आयु में प्रभावी नहीं हो पाते। शिशु
कक्षाओं में प्रवेश के बाद माता-पिता की निश्चिंतायें बढ़ती हैं तथा वे
नैतिक शिक्षा अथवा नैतिक संस्कार के लिए भी विद्यालय शिक्षा पर निर्भर
करने लगते हैं। यहीं चूक होती है तथा बच्चा अन्य विषयों के मायाजाल में
उलझकर नैतिक मूल्यों को जीवन में उतारने के प्रति सक्षम नहीं बन पाते
तथा संस्कारों का समावेश उनमें नहीं हो पाता है।
मनुष्य
की समाज में जीवन शैली में भी व्यापक परिवर्तन हो गया है। पचास से सौ
साल पहले का रहन-सहन, खान-पान, पहन-पहनावा तथा जीवन-प्रंसग सब कुछ बेतहाशा
रूप से बदल गये हैं, सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के परिवर्तन से
माता-पिता तथा संतान के मध्य भी एक दूरी का नया परिवेश बन गया है, जिससे एक
अंतराल तथा मोहभंग की सी स्थिति बनी है। माता-पिता एक सीमा तक बच्चों
से कोई सीख की बात कह पाते हैं। तत्पश्चात् वे अपने को इसके लिए तैयार
कर लेते हैं कि यदि बच्चों में लापरवाही का भाव बढ़ रहा है तो वे उसे उसके
हाल पर छोड़ दें। संतान के प्रति यह भाव कालान्तर में अत्यंत खतरनाक बन
जाता है तथा एक पूरी पीढ़ी को हम मूल्य विघटन के करीब पाते हैं, जो
उनकी उपेक्षा अथवा बदलते जीवन मूल्यों की चपेट में आ गयी है। इस नैतिक
संस्कार शिक्षा का लोप स्वमेव ही होने लगता है तथा बच्चों में अनादर,
कुसंस्कार तथा अनैतिक मान्यतायें घर करने लगती है। वे छोटे-बड़े का
गुरूजनों का तथा मानव सभ्यता का गूढ़ अर्थ न समझकर उथले भाव से इन्हें
स्वीकार करते हैं, जिससे नैतिक मूल्य नयी संस्कृति में पिसकर रह जाते हैं।
दूरदर्शन
ने देश की अस्सी प्रतिशत आबादी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है तथा जो
कार्यक्रम वहां दिखाये जा रहे हैं, वे नैतिक शिक्षा संस्कार निर्माण में क्या योगदान दे रहे हैं, इस पर बहस व्यर्थ है। बच्चा थोड़ा सा भी समझ ग्रहण
करता है तब से वह घर में टीवी कार्यक्रमों को देखना शुरू कर देता है।
जिनमें अपसंस्कृति के मूल्य निहित होते हैं, तब बबूल उगाकर आम प्राप्त करने
की कामना का कोई महत्त्व नहीं है। दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली फिल्मों,
धारावाहिकों से अपराध, सैक्स तथा हिंसा का लावा फैलता है तथा नयी
पीढ़ी में यही संस्कार बलवती होता चला जाता है कि जीवन यही है तथा इसी तरह
से उन्हें अपना जीवन यापन करना हैं, तब भी नैतिक शिक्षा कोई स्वरूप नहीं ले
पाती। बच्चों में संस्कार का भाव जागृत करने वाले यदि शत-प्रतिशत
कार्यक्रम प्रसारित हों तो वे नैतिकता को अपनी जीवन आवश्यकता के रूप स्वीकार कर सकते हैं और एक दूषित सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना को रोका
जा सकता है। लेकिन व्यावसायिक दृष्टि तथा अधिकतम कमाने-खाने की प्रवृति ने
मनुष्य को इतना स्वार्थलोलुप बना दिया है कि वह उस दायरे से बाहर नहीं
आना चाहता। चाहे इससे समाज की कितनी ही बड़ी हानि क्यों न हो जाये।
माता-पिता और बच्चों में टीवी कार्यक्रमों को देखने की एक दूरी भी समाप्त
हो गयी है।
वे सभी
कार्यक्रम जो केवल वयस्क लोगों को देखने चाहिए, वे बच्चों के साथ देखे
जाते हैं, तब आदर तथा नैतिक भाव में गिरावट स्वाभातिक है। इसलिए नैतिक
मूल्य निर्माण का कार्य फिर अभिभावकों पर आ जाता हैं।
जहां
तक शिक्षा पाठ्यक्रमों का प्रश्न है, वे नैतिक शिक्षा के लिए कोई भूमिका
नहीं निभाते। लार्ड मैकाले काल की शिक्षा पर नयी शिक्षा नीति का मुलम्मा
चढ़ा देने से वह नये जीवन को पोषित नहीं कर सकती। उसके लिए नये परिवेश, सोच
तथा स्रोतों की आवश्यकता है। पाठ्यक्रमों को इस रूप में समृद्ध किया जाना
चाहिए। वे बालकों में नैतिक शिक्षा मूल्यों के प्रति निष्ठा जमा सकें और यह
कार्य शिक्षा में सतत् रूप से चलना चाहिए। तब जो संस्कारों की सीख का
कार्य परिवार की शाला में घट रहा है, वह विद्यालय में पूर्ण हो सकता है।
विद्यालयों में शिक्षक व शिक्षार्थी के मध्य जो नये संबंधों का सूत्रपात
हुआ है तथा शिक्षक दायित्वों से विमुख हुये हैं, वह भी अनैतिक मान्यताओं
तथा चारित्रिक दोषों को बढ़ाते है। इसलिए यह एक ऐसा नाजुक दौर है, जिसमें
नयी पीढ़ी को संस्कार देने का कार्य कोरी सीख या उपदेश के रूप में नहीं
अपितु जीवन की आवश्यकता के लिए प्रतीक रूप में परोक्ष स्वरूप में दिया जाना
चाहिए, तदनुसार ही नये पाठ्यक्रम तैयार किये जाने चाहिए। नैतिक शिक्षा का
पृथक से पाठ्यक्रम अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना भी इसका एक विकल्प हो सकता
है।
शिक्षा, सीख का पर्याय है तो फिर इसका वर्तमान में
संदर्भो महत्त्व और अधिक व्यापक हो गया है, क्योंकि यह पीढ़ी नैतिकता
तथा आदर्शो में पतनोन्मुखी हुयी है। यही समय है जब संस्कारों की नैतिकता
में परिष्कार कर हम एक सुनागरिक निर्माण कर समाज और राष्ट्र को ठोस धरातल
दे सकते हैं अन्यथा हमारी उपेक्षा और अनदेखी इस देश में ऐसे युग की शुरूआत
भी कर सकती है। जो अत्यंत कष्टदायी तथा विध्वंसकारी होगा। अतः रचनात्मक सोच
का मार्ग प्रशस्त किया जाना ही