– चन्द्रकान्ता शर्मा
स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और बाद में भी महिलाओं के अधिकारों के लिए समय-समय पर आवाज उठाई जाती रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे सामाजिक-माहौल के परिणामस्वरूप महिलाओं का विकास रूक सा गया तथा वे पुरूषों के समान अपनी प्रगति नहीं कर सकी। हमारे देश में जहाँ प्राचीन-काल से ही ये मान्यता प्रचलित है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है, वहीं आज नारी विविध तरह के शोषण का शिकार ही रही हैं।
नारी जो कि जननी है, बहिन है, बेटी है, पत्नी है और सृष्टि की सर्वोत्तम रचना है, उसके प्रति परायों का ही नहीं, अपनों का भी अनुचित व्यवहार अत्यन्त् शोचनीय है। विकास के इस दौर में देश को केवल पुरूषों के सहयोग की ही नहीं अपितु महिलाओं के सहयोग की भी परम् आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की भी है कि हम महिलाओं को जागरूक करें तथा इस भावना का उनमें संचार करें कि वे भी हमारे देश और समाज को वो सब दे सकती हैं, जितना कि एक पुरूष दे सकता है। बल्कि उससे कहीं ज्यादा दे सकती हैं। इन सबके लिए जरूरी है कि एक महिला अपने मूलभूत अधिकारों से वाकिफ हों, उन्हें पहचानें और उनका इस्तेमाल करें। वो दब के न रहें, अपनी आवाज बुलन्द करें, चीजों को समझें, उनकी प्राथमिकताएँ निश्चित करें और प्रगति के पथ पर अग्रसर हो जाएं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हमारी सरकार ने महिलाओं के अधिकारों के लिए कानून बनाए हैं। ये कानून महिला-अधिकार के रक्षक हैं। अनुच्छेद 15 के अनुसार लिंग अथवा धर्म, जाति, जन्म-स्थान आदि के आधार पर किसी के साथ, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता हैं। अनुच्छेद 16 में दिए हुए अधिकार का महत्व विशेष उल्लेखनीय है। इस व्यवस्था के अनुसार लोक-सेवाओं में स्त्री एवं पुरूष को बिना भेद किए अवसर की समानता प्रदान की गई है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 19 में स्त्री अथवा पुरूष दोनों को ही अपनी बात को अभिव्यक्त करने की समान रूप से स्वतंत्रता दी गई है और इसी तरह से किसी भी महिला को शोषण से बचाने के लिए हमारी सरकार ने और भी कई कानून बनाए हैं, जिनका उपयोग करके महिलाएँ अपने अधिकारों की रक्षा कर सकती हैं। इन सब अधिकारों के परिणामस्वरूप सरकार की ओर से महिला – अधिकारों को कानून की सुरक्षा प्रदान कर दी गई है। लेकिन समस्या केवल यहीं तक सीमित नहीं है, जितना कि हम इसे समझ रहे हैं, ये तो समस्या का एक छोटा-सा अंश मात्र था।
समस्या का विकराल रूप हमारी सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है हमारे समाज में आज भी लड़कियों को माता-पिता बोझ मानते हैं, इसी वजह से देश में भ्रूण-हत्या का प्रचलन गैरकानूनी रूप से कर बढ़ रहा है। इसके अलावा दहेज की समस्या का कोई उचित हल नहीं निकल पा रहा, खुद लड़की के माता-पिता अपनी बच्ची की अच्छे घर में शादी करने हेतु दहेज के पक्ष में बोलते हैं। उनका एक मात्र तर्क यही रहता है कि अगर लड़की की अच्छे घर में शादी करनी है तो दहेज तो देना ही पड़ेगा। कानूनी रूप से दहेज माँगना एक अपराध है। जब से एक लड़की जन्म लेती है, तभी से उसके सामने अपने अधिकारों की लड़ाई जन्म ले लेती है।
सर्वप्रथम तो उसे अपने आपको इस दुनिया में लाने के लिए अर्थात अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष करना पड़ता है। खुद उस बच्ची की मां अपनी मजबूरियों में अपने ही बच्चे को मारने को विवश हो जाती है। पुराने जमाने में जहाँ लड़कियों को पैदा होने पर मारा जाता था, उसी की तर्ज पर आज लड़कियों को अपनी मां के पेट में ही मार दिया जाता है जो कि नृशंसता की पराकाष्ठा है। इससे जहाँ एक बच्चे की मौत होती है, वहीं एक मां भी पल-पल मरती है। एक ओर जननी इस दुनिया में आने से पहले ही चली जाती है। ये प्रक्रिया महिलाओं के स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी हानिप्रद है। गर्भ में एक लड़की है और उसे नष्ट करने के लिए जो भी अत्याचार किए जाते है, वे सरासर अमानवीय हैं, क्रूर है व लल्जाजनक हैं। इसे रोकने हेतु प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम 1994 लागू कर दिया गया है। इस कानून को तोड़ने वाले को 3 से 5 साल तक की कैद व 10-15 हजार रूपए तक का जुर्माना लिए जाने का प्रावधान है। मादा भ्रूण-हत्या के कारण हमारे देश में प्रति 1000 पुरूषों के पीछे स्त्रियों की संख्या काफी कम हो गई है।
राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों में स्त्रियों की संख्या काफी कम है लेकिन केरल में शिक्षा की अच्छी स्थिती के कारण प्रति 1000 पुरूषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या उनसे कहीं ज्यादा है। इसे रोकने के लिए कानून ही नहीं अपितु सामाजिक-जागरूकता, स्त्रियों व लड़कियों के प्रति समान व्यवहार व शिक्षा की परम आवश्यकता है। स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा के लिए उनका शिक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा प्राप्त करना भी स्त्रियों के अधिकार में शामिल है। इसके लिए सरकार ने लड़कियों के लिए निःशुल्क शिक्षा, पाठ्य-पुस्तकों व पढ़ाई की जरूरी सामग्री का वितरण करने के कार्यक्रम अपना रखें हैं ताकि गरीब व्यक्ति भी अपने घर की लड़की को पढ़ा सके। बड़ी उम्र की स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रौढ़शिक्षा कार्यक्रम गाँवों में आयोजित किए जा रहे हैं। इससे नारी जागरूक होती है तथा अपने अधिकारों की रक्षा स्वयं कर सकती है। इसके अलावा सरकार की तरफ से स्त्रियों को स्वाबलम्बी बनाने हेतु कई तरह के प्रशिक्षणों, अनुदानों आदि की भी व्यवस्था की गई है ताकि नारी अपने पैरों पर खुद खड़ी हो और चुनौतियों का डट कर मुकाबला कर सके।