– डॉ. ममता अवस्थी
पुरुष प्रधान भारतीय समाज में जब भी महिलाओं को आगे लाने की बातें होती है पुरुषों को ऐसा लगने लगता है जैसे कोई उनकी तिजोरी में डाका डाल रहा हो। उन्हेंं यह लगता है कि जैसे बिना पुरुषों के सहारे महिलाएं कोई काम कर ही नहीं पाएंगी। पिछले कुछ सालों में महिला सशक्तीकरण के प्रयासों के चलते इस धारणा में बदलाव तो हुआ है लेकिन हालात अभी पूरी तरह बदलने में काफी वक्त लगेगा।
सबसे बड़ी बात यह है कि खुद महिलाओं को भी पुरुष प्रधान मानसिकता वाली छवि से उबरने में अभी वक्त लगेगा। नारी सशक्तीकरण का मतलब केवल महिलाओं के आर्थिक दृष्टि से सक्षम होने अथवा ज्यादा पढ़-लिख जाने से ही नहीं है। इसके साथ यह भी देखना होगा कि सशक्तीकरण के इन प्रयासों में खुद महिलाओं की कितनी भागीदारी है? सरकार महिला उत्थान के लिए नई-नई योजनाएं बना रही हैं, कई एनजीओ भी महिलाओं के अधिकारों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने लगे हैं जिससे औरतें बिना किसी सहारे के हर चुनौती का सामना कर सकने के लिए तैयार हो सकती हैं। बदलाव की इस बयार में हम देख रहे हैं कि आज की महिलाओं का काम केवल घर-गृहस्थी संभालने तक ही सीमित नहीं है, वे अपनी उपस्थिति हर क्षेत्र में दर्ज करा रही हैं।
बिजनेस हो या पारिवार महिलाओं ने साबित कर दिया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जो पुरुष समझते हैं कि वहां केवल उनका ही वर्चस्व है, अधिकार है। जाहिर है कि महिलाओं ने अब खुद पर विश्वास करना सीख लिया है। इस बदलाव का बड़ा कारण उनको पढऩे-लिखने का मौका मिलना रहा है। यह माना जाना चाहिए कि अब नारी किसी से कमजोर नहीं है। उसने बाहरी दुनिया को जीतने का जैसे सपना मन में संजो लिया है।
चिंता की बात यह है कि पुरुष प्रधान समाज में नारी की यह तरक्की आज भी देखी नहीं जाती। पुरुष वर्ग हमेशा स्त्रियों को खुद से कमतर दिखाने के प्रयास में जुटा रहता है। आज भी बराबरी का दर्जा मांगने वाली महिलाओं को हर कदम पर अपमानित होना पड़ता है। उन परिवारों की क्या कहें जिनको यह लगता है कि शादी के बाद उनके घर में आई महिला सिर्फ घर के कामकाज में हाथ बंटाने के लिए ही आई है। ऐसे लोग अपनी बेटियों की जगह रखकर बहुओं को देखें तो उनके नजरिए में बदलाव आते देर नहीं लगेगी। लेकिन बदलाव सिर्फ इससे ही आने वाला नहीं। बेटियों को पराया धन मानने की प्रवृत्ति में भी बदलाव लाने की जरूरत है।
आम तौर पर यह सोचा जाने लगा है कि बेटी को तो शादी के बाद दूसरे घर जाना है फिर उसकी पढ़ाई-लिखाई पर ज्यादा खर्च भला क्यों करें। ग्रामीण इलाकों में तो महिलाओं की हालत आज भी शोचनीय है। नारी सशक्तिकरण की बातें सरकारी योजनाओं में सिमट कर रह गई है। यह बात सच है कि बड़े शहरों और मेट्रो सिटी में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र, नई सोच वाली, ऊंचे पदों पर काम करने वाली महिलाएं हैं, जो पुरुषों के अत्याचारों को किसी भी रूप में सहन नहीं करना चाहतीं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाएं हैं जो ना तो अपने अधिकारों को जानती हैं और ना ही उनको लेकर संघर्ष करने की स्थिति में रहती है। अत्याचारों और सामाजिक बंधनों की वे इतनी आदी हो चुकी होती हैं कि बंधन वाली इस जिंदगी से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता। कुल मिलाकर बराबरी के दर्जे के लिए नारी समुदाय को खुद ही आगे आना होगा।
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