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महंगी शिक्षा बनी समस्या, सरकारी संस्थाओं में गिरी गुणवत्ता

शिक्षा सत्र आरम्भ होने के साथ ही अभिभावकों में अपने बच्चों को अच्छे विद्यालयों में प्रवेश दिलाने की भगदड़ शुरू हो जाती है

Jan 15, 2017 / 03:44 pm

सुनील शर्मा

493 schools have no furniture

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– चन्द्रकान्ता शर्मा
जुलाई से शिक्षा सत्र आरम्भ होने के साथ ही अभिभावकों में अपने बच्चों को अच्छे विद्यालयों में प्रवेश दिलाने की भगदड़ शुरू हो जाती है। अब तो हालत यह है कि जिन स्कूलों का थोड़ा बहुत नाम है, वे फरवरी-मार्च माह में ही प्रवेश परीक्षाएं आयोजित कर अपने प्रवेश कार्यो को अंतिम रूप दे देते हैं तथा जुलाई में होने वाली इस कार्रवाई से बचकर कक्षाएँ प्रारम्भ करवा देते हैं। जुलाई में सरकारी तथा छोटे स्कूलों तथा हिन्दी माध्यम स्कूलों में प्रवेश के स्थान बच पाते हैं। उनके यहाँ कार्य पूरे माह चलता रहता है। इन स्कूलों में भी हालत यह है कि स्थान सीमित हैं तथा प्रवेश के लिए कतार लम्बी है, तो वे भी कम अंकों से उत्तीर्ण छात्रों तथा विलम्ब से आने वाले आवेदकों को प्रवेश नहीं दे पाते जिसके परिणामस्वरूप बच्चों को उन विद्यालयों में प्रवेश दिलाना पड़ता है, जो केवल कमाई के रूप में प्रशिक्षित शिक्षकों के सहारे मनमाने शुल्क के सहारे गली-गली में चलाए जाते हैं।

इनमें से पचास प्रतिशत विद्यालय तो ऐसे है जिन्हें सरकारी मान्यता नहीं होती है और बेरोजगार युवकों को हजार दो हजार रूपये की नौकरी देकर दलाए जा रहे हैं। इसके अलावा अभिभावक अपने बालकों का प्रवेश फार्म चार-पाँच स्कूलों में भरते हैं ताकि कहीं तो प्रवेश मिल ही जाए। इसके लिए वे प्रवेश शुल्क व उसकी तैयारी पर सैकड़ों रूपया व्यय करने को विवश होते हैं। जन-साधारण में बालकों को निजी पब्लिक शिक्षण संस्थाओं में पढ़ाने का आकर्षण पिछले कुछ वर्षो में ज्यादा बढ़ा है। अत: उन विद्यालयों के भाव बढ़ गए हैं तथा वहाँ के स्कूल प्रशासन में मनमानी व तानाशाही का बोलबाला दिनों-दिन गहराया है। जहाँ तक सरकारी विद्यालयों की स्थिति है, वे संख्या में इतने न्यून हैं कि सबकी प्रवेश की समस्या को हल करने में विफल रहते हैं। वहाँ भी विकास अथवा भवन फीस के नाम पर चन्दा वसूली का कार्य प्रारम्भ हो गया है, जिससे गरीब छात्र का प्रवेश तो वहाँ भी अत्यन्त जटिल हो गया है।

ऐसे अभिभावक अनेक बार तो बालकों को पढ़ाने का ख्याल त्याग देते हैं अथवा प्रवेश साल दर साल स्थगित करते रहते हैं। यह स्थिति ग्रामीण अंचलों में ज्यादा विद्यमान है। ग्रामीण स्कूलों में स्थिति और भी बदतर है। पूरे गाँव में स्कूल एक है तथा प्रवेश के लिए रेला पूरा है। वहाँ आस-पास की उन बस्तियों तथा ढ़ाणियों से बालक आ रहे हैं जहाँ विद्यालयों की सुविधा आज भी सुलभ नहीं हो पाई है। जो गाँव तनिक विकसित होकर ‘कस्बे’ का रूप ले चुके हैं, वहाँ शहरी संस्कृति ने पाँव पसार लिए हैं। उनकी ही तर्ज पर वहाँ निजी शिक्षण संस्थाएँ समारम्भ हो गई हैं। अत: वहाँ ग्रामीण लोगों में सरकारी स्कूलों की अपेक्षा निजी स्कूलों में प्रवेश दिलाने का मोह बढ़ा है। इन विद्यालयों में भी वही मनमानी शिक्षण शुल्क तथा विकास शुल्क लगाकर सामान्यजन से रूपया वसूलने का कुचक्र चल रहा है।

आखिर प्रवेश की इस समस्या का हल क्या हो सकता है। जिससे शिक्षा हर किसी को सुलभ हो सके। सरकारी स्तर पर प्रति वर्ष अन्य क्षेत्रों की भाँति शिक्षा के क्षेत्र में भी घोषणाएँ की जाती हैं। उनमें नए विद्यालय खोलना, स्कूलों को क्रमोन्नत करना, सबको शिक्षा और सस्ती शिक्षा, साथ ही साथ नि:शुल्क शिक्षा सम्मिलित है। परन्तु असलियत यह है कि व्यवहारिक रूप में यह कार्य व्यवस्थित ढ़ंग से बहुत कम हो पाता है। विद्यालयों की कमी से ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में प्रवेश की समस्या ज्यों की त्यों बनी रह जाती है। यदि स्कूल खुल जाते हैं तो शिक्षकों की व्यवस्था नहीं हो पाती तथा दो-चार शिक्षकों के सहारे चार-पाँच सौ छात्रों का विद्यालय संचालित किया जाता है, जिसमें शिक्षक छात्रों को विद्यालय में रोके रखने की प्रारम्भिक व्यवस्था के अध्ययन-अध्यापन का कार्य ईमानदारी से नहीं कर पाता, इससे हालात होते हैं, छात्र शिक्षित नहीं हो पाते तथा अभिभावकों का सरकारी स्कूलों से विश्वास डिगने लगता है और वे निजी शिक्षण संस्थाओं की ओर मुडऩे लगते हैं।

आज भी देश में ऐसे विद्यालयों की कमी नहीं है, जिनके पास पर्याप्त भवन नहीं हैं, पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं, पेयजल की व्यवस्था नहीं है। चपरासी नहीं है, दरी-टाट पट्टियाँ, श्याम पट्ट, स्टेशनरी, पुस्तकालय, वाचनालय तथा अन्य वे आवश्यकताएँ नहीं हैं, जो किसी विद्यालय के लिए अनिवार्य मानी जाती है। सर्दी, गर्मी, वर्षा तीनों मौसम में बच्चे खुली छत, दालान तथा वृक्षों के नीचे पढ़ते हैं, वहाँ पढऩा तो एक बहाना मात्र है, बाकी मौसम की बेचैनी है अथवा मौका लगते ही शिक्षकों द्वारा एक-दो पीरियड चलाकर छुट्टी कर देने की विवश्ता है। प्राइवेट स्कूल सुविधाएँ बेहतर प्रदान करते हों, ऐसा भी नहीं है। वे भी शिक्षा से स्तर में उन्हीं के आस-पास हैं। वहाँ कम पारिश्रमिक में जो अप्रशिक्षित कम पढ़े-लिखे शिक्षक रखे जाते हैं वे अपने अधकचरे ज्ञान से बालक को क्या ज्ञान दे पाते हैं, समझ सकते हैं।

प्राइवेट स्कूलें तो इस समय धंधे का एक अंग बन गई हैं, बाकी ज्ञान, शिक्षक, अध्ययन-अध्यापन तथा छात्रों की शैक्षणिक सांस्कृतिक तथा वैयक्तिक गतिविधियों से नितांत बेखबर हैं। यही क्या अस्सी प्रतिशत स्कूलों के पास खेल के मैदान तथा खेलने के साधन नहीं हैं। यही वजह है कि वहाँ खेलकूद की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता और आज इसके कारण हमें हर खेल में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मुँह की खानी पड़ रही है। सांस्कृतिक तथा खेलकूद की कमी भी अनेक बार अभिभावकों तथा छात्रों में उस स्कूल में अरूचि का कारण बनती है और वे ऐसे स्कूलों में प्रवेश न लेना चाहते, न ही अभिभावक उनमें बच्चों को प्रवेश दिलाना चाहते हैं। जहाँ तक सरकारी प्रयासों का प्रश्न है, नौकरशाही और लालफीताशाही के कारण वहाँ सारे प्रयास शत-प्रतिशत रूप से सफल नहीं हो पाते और एक संस्था के विकसित होने में वर्षो बीत जाते हैं। हमारी सामाजिक व्यवस्था कुछ ऐसी बनती जा रही है कि लोग स्तर, दिखावा तथा प्रतिष्ठा के लिए उन बातों की ओर खिंचे जा रहे हैं, जिन्हें स्वभाव से सहजता लाकर टाला जा सकता है।

आदमी की वैयक्तिक आमदनी आधुनिक विचारों का प्रचार तथा नियोजित परिवार व्यवस्था के कारण व्यक्ति बेहतर से बेहतर सुविधा की ओर लपकता है। ऐसी स्थितियों में शहरों में तो निजी पब्लिक स्कूलों की बन आती है, जिनके पास विशाल भवन हैं तथा आधुनिक सुख-सुविधाओं का दिखावा है, इन स्कूलों में प्रवेश के समय ही शिक्षकों द्वारा उनसे ट्यूशन जुलाई माह से ही तीन सौ, चार सौ रूपये महीने में लेना तय कर लिया जाता है, ये शिक्षक उन ही छात्रों के प्रवेश मैनेज करते हैं जिनसे उन्हें आर्थिक लाभ मिलता है। चन्द वे छात्र प्रवेश में असफलता प्राप्त करते हैं जो वाकई पढ़ाई में उच्च स्थान रखते हैं तथा उन्हें मेरिट से हटाया नहीं जा सकता। उनका शैक्षणिक रिकार्ड इतना सक्षम होता है कि स्कूल प्रशासन को ऐसे छात्रों को प्रवेश स्कूल की छवि तथा व्यवस्था कायम रखने के लिए देना ही पड़ता है।

लाभ उन्हीं छात्रों से वसूला जाता है जो मध्यम श्रेणी के तथा पढ़ाई में सामान्य होते हैं अथवा पैसे वाले हैं परन्तु पढ़ाई में कमजोर हैं। वे चन्दे तथा ट्यूशन के बल पर प्रवेश में अपना स्थान आरक्षित करा लेते हैं। ले-देकर रह जाते हैं तो गरीब छात्र तथा पढ़ाई में सामान्य स्तर वाले वे छात्र जो अनेक स्थितियों के कारण अपनी मैरिट नहीं बना पाते। कमोबेश यही स्थिति ग्रामीण स्कूलों में भी प्रवेश के समय परिलक्षित होने लगी है। जहाँ तक बड़ी कक्षाओं में प्रवेश की बात है, वहाँ स्थिति ज्यादा दर्दनाक है। माध्यमिक तथा कॉलेजीय शिक्षा में प्रवेश और भी मुश्किल हो गया है, वहाँ प्रवेश के कायदे-कानून मुकर्रर करने तथा मापदण्ड बना दिए जाने से हर छात्र का प्रवेश सहज नहीं रह गया है। ऐसे में समझ में नहीं आता कि फिर ‘सबको सस्ती शिक्षा’ नारे का अर्थ क्या रह जाता है। जो व्यवस्था सबको शिक्षा मुहैया नहीं करा पाती वह कैसे सफल मानी जा सकती है?

इनसे निराश छात्र प्राइवेट परीक्षार्थी बनकर ज्ञान पिपासा शान्त करता है। कोचिंग कॉलेज की बन आती है, वे भी मनमाना शुल्क लेते हैं और बेतहाशा विद्यार्थियों को इकट्ठा कर लेते हैं। वहाँ निजी शिक्षण संस्थाओं की तर्ज पर काम तो होता है, परन्तु सुविधाओं के नाम पर सारी बातें गौण होती हैं। एक छात्र के लिए जो शैक्षणिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा वैयक्तिक एवं खेलकूद का जो वातावरण उसे चाहिए वह नहीं मिल पाता। वहाँ केवल दो-चार पीरियड के बाद अवकाश कर दिया जाता है। ऐसी स्थितियों में आज आवश्यकता है स्कूलों की सरकारी स्तर पर अधिक व्यवस्था किए जाने से। नए स्कूल-कॉलेज खोले जाएँ, शिक्षकों की पूर्ण व्यवस्था की जाए, स्कूलों में शिक्षा का स्तर बढ़ाया जाए तथा प्राथमिक आवश्यक सुविधाओं का विस्तार किया जाए। ऐसा करने से सामान्यजन का विश्वास सरकारी स्कूलों के प्रति जगेगा तथा निजी शिक्षण संस्थाओं से मोहभंग होगा, तो प्रवेश की समस्या सुलझेगी तथा सबको सस्ती शिक्षा का नारा भी सार्थक होगा। विधायक भवन बनाए जाएँ। छोटे सेक्शन बनाए जाएँ तथा शिक्षण शुल्क न्यून रखा जाए तो सरकारी शिक्षा व्यवस्था का लाभ लेने में अभिभावकों की रूचि पैदा होगी, इससे पब्लिक स्कूलों की मनमानी पर भी लगाम लगेगी और वे भी बेहतर शिक्षा की दिशा में तुलनात्मक रूप से सक्रिय होंगे।

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