– चन्द्रकान्ता शर्मा
किसी भी देश का हर बालक सुन्दर, सुषील एवं सुसंस्कृत हो, जन-जन की भावनाएँ इस भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य की ओर लगी रहती है, क्योंकि बालक ही राष्ट्र का निर्माण करता है। परन्तु अभावों और दूषित वातावरण की वजह से अबोध बालक दिषा भ्रमित हो जाता है। बालक का प्रारम्भिक जीवन परिवार के दायरे तक ही सीमित रहता है। परिवार ही बालक की प्राथमिक शाला है। परिवार के हर व्यक्ति का उसके जीवन पर अमिट प्रभाव पड़ता है।
माता-पिता को बालक की मनोवृत्तियों एवं आदतों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए उसे सही दिषा की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। माता-पिता बालक की शिक्षा -दीक्षा के प्रति जागरूक रहें, तो निःसंदेह उसे एक सुयोग्य नागरिक बना सकते हैं। बालक की प्रारम्भिक शिक्षा को दृष्टि में रखते हुए माता-पिता से जो अपेक्षा की जाती है वह है श्रेष्ठ वातावरण उत्पन्न करने की। बालक को सही प्रशिक्षण उसके मानसिक विकास के सन्दर्भ में जरूरी माता जाता है लेकिन हर माता-पिता बाल मनोविज्ञान के विषेशज्ञ नहीं होते और जो होते भी हैं वे व्यस्तता का राग अलाप कर नयी पीढ़ी के निर्माण के प्रति उदासीन बने रहते हैं। कुछ लोग बालक की प्रारम्भिक षिक्षा के महत्त्व एवं सीखने की क्षमता के प्रति कुछ भ्रांतियों से ग्रस्त रहते हैं जैसे अत्यधिक लाड़-प्यार वश कहेंगे- अभी बालक की उमर ही क्या है ? अभी तो इसके खेलने-कूदने के दिन हैं। पढ़ने-लिखने के लिए तो सारा जीवन पड़ा है। समय आएगा तब चिन्ता करेंगे और बालक इसी क्रम से बुरी आदतों की ओर बढ़ता जाता है।
बालक को विद्यालय भेजने से पूर्व माता-पिता को उपयुक्त विद्यालय का चयन करना चाहिए और यह ध्यान रखना जरुरी होता है कि परिवार एवं विद्यालय के वातावरण में समानता रहे। चाहे मौहल्ले की प्राइमरी पाठषाला हो, नर्सरी स्कूल हो या इंगललिश काॅनवेंट। यदि घर का वातावरण कर्मकांड़ी, पूजा-पाठ आदि का है तो बालक काॅनवेंट स्कूल में छुआछूत आदि के भेदभाव को मानेगा और इस प्रतिकूल वातावरण में अपने आपको कटा-कटा तथा अजनबी-सा महसूस करने लगेगा और उसमें जाग्रत हीन भाव उसकी उन्नति में बाधक सिद्ध होंगे। विद्यालय का सही चयन न कर पाने पर बालक निश्चित रूप से अपने आप को विरोधाभास की स्थिति में पाएगा। परिवार का वातावरण उसे कुछ और बनाना चाहेगा, विद्यालय का कुछ और।
बालक की बुनियादी शिक्षा को सही दृष्टिकोण देने के लिए पारिवारिक वातावरण के सुधार की ओर विषेश ध्यान दिया जाना चाहिए। अधिकांश लोगों की धारणा यह होती है शिक्षा देना तो विद्यालय का कार्य है। यदि माता-पिता नए युग के अनुसार नया दृष्टिकोण देना चाहते हैं तो उन्हें अंधविष्वासों, रूढ़ियों, कुप्रथाओं एवं पुरातनपंथी मान्यताओं से मुक्त होना चाहिए। इसलिए कि प्राथमिक स्तर के विद्यालय ही बालक के सही चरित्र-निर्माण के आधार-स्तंभ होते हैं। अनेकों बालक प्रतिभाशाली होते हुए भी अभावों की जिन्दगी में अपना सही विकास करने से वंचित रहे जाते हैं। परिवार का रहन-सहन, खान-पान, वेषभूषा आदि बालक के संस्कारों पर स्थायी प्रभाव डालते हैं।
माता-पिता की लापरवाही की वजह से अधिकांश बालक सिनेमा, शराब, क्लब, इष्क, चोरी, सस्ते अष्लील उपन्यास पढ़ना आदि दुर्गुणों से ग्रस्त होते चले जाते हैं। माता-पिता की जिम्मेदारी है कि पहले स्वयं इन बुराइयों से दूर रहकर बालक को संस्कारपूरित बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। उन्हें महापुरूषों की जीवनियाँ पढ़ने के लिए उपलब्ध कराते रहें तथा बाजारू किस्म के बालकों की संगति के भावी परिणाम समझाकर चरित्रवान बालाकों की संगति करने की पे्ररणा देनी चाहिए। अन्यथा बालक के प्रारम्भिक जीवन पर पड़े हुए गलत संस्कार उसे जीवन में सिर्फ निराशा प्रदान करते हैं।