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खोखली होती जा रही परिवार  की जड़ें

Published: Sep 19, 2016 08:48:00 am

महिलाओं के प्रति सोच में लाएं बदलाव

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– डॉ. मिथिलेश गुप्ता

वैश्वीकरण के कारण पडऩे वाले नकारात्मक प्रभावों ने इक्कीसवीं सदी में महिलाओं के प्रति अपराधों के ग्राफ को उत्तरोत्तर बढ़ाया है। वर्तमान में महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा, व्याभिचार और दमन सामाजिक व्यवस्था की खामियां खाप पंचायत निर्णय तथा डायन बताकर प्रताडि़त करना अंधविश्वास दूषित परम्परायें निपूति, बांझ, बाल विधवा का मुंह देखना अपशकुन, रुढिवादी मानसिकता (स्त्री- अबला, अकुशल तथा बेसहारा) जैसी संकीर्ण सोच तथा दहेज जैसी विकट समस्याओं से निजात पाने के लिए कन्या प्राप्ति से लोग कतराने लगे हैं।

आधुनिक तकनीक व विज्ञान के युग में धंधेबाजों ने इसका विकल्प ढूंढ़ा और अल्ट्रा साउंड व अन्य विकसित चिकित्सीय उपकरणों से माता के गर्भ में कन्या भ्रूण को समाप्त करने का आंकड़ा इतना बढ गया है जिसने पूरे भारत के ही लिंगानुपात में बहुत अंतर पैदा कर दिया है। शिक्षा ने इस कृत्य को अंजाम तक पहुंचाने में योगदान प्रदान किया। परिणाम स्वरुप उच्च स्तरीय शिक्षित व सभ्य पढ़े लिखे साधन सम्पन्न परिवारों में भ्रूण हत्या अधिक हो रही है क्योंकि ये नैतिकता वर्तन होने व आत्मा की चित्कार को सुन पाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। यदि राज्यों की स्थिति पर दृष्टिपात करें तो अधिक सुदृढ एवं आर्थिक रुप से सम्पन्न राज्य हरियाणा तथा पंजाब, दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरांचल एवं हिमाचल प्रदेश में कन्या भ्रूण हत्या के ग्राफ में तेजी से इजाफा हुआ है जो सामाजिक बुराई तो है ही, मानवता के माथे पर एक कलंक बन गया है।

स्त्री-पुरुष के बढ़ते लिंगानुपात के कारण लड़कों को अपना जीवन साथी न मिलने से उनमे जहां एक ओर अनिश्चित भविष्य का भय घर कर रहा है वहीं दूसरी ओ वे अपराध जगत में प्रवेश कर यौन सन्तुष्टि के असमाज स्वीकृत तरीके अपनाकर अपनी यौन संतुष्टि हेतू गाहे बगाहे अकसर अवसर की तलाश में रहते हैं और यौन क्षुधा का सन्ताप उन्हें उचित अनुचित, मेल-बेमेल को नकार कर अवसरवादी बना रहा है। फिर चाहे महिला हो या बालिका, आस पड़ौस की हो या रिश्तेदारी, विकसित है या अविकसित इससे उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता और यौन की प्यास और भूख शमन के बाद उसे अनेक प्रकरणो में मौत के घाट उतार कर अपना पौरुष दर्शा रहे हैं। यौन उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा, महिला शोषण व अत्याचार के उदाहरण प्रति दिन समाचार पत्र पत्रिकाओं की सुर्खियों में जगह बना रहे हैं। जिन्होंने महिलाओं को अंदर तक झकझोर कर रख दिया है। जो राष्ट्रीय चिंतन का विषय बनते जा रहे हैं साथ राष्ट्रीय शर्म का विषय भी है।

आज परिवार विवाह तथा जाति जैसी संस्थाओं का भी तेजी से विघटन और स्वरुप परिवर्तन हो रहा है। संयुक्त परिवार का स्थान एकल (न्यूक्लीयर) या नाभिकीय (सिंगल पर्सन फैमिली) तक ही सीमित नहीं रहकर एक व्यक्ति परिवार की संख्या में
भी उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हो रही है। परम्परागत व्यवस्थित विवाह के स्थान पर विवाह, अन्र्तजातीय, अन्तधार्मिय विवाह होने लगे जो यौन आकर्षण व आवेश का परिणाम तो हैं ही, उनके स्थायित्वता पर सन्देह भी व्यक्त करता है। बढ़ते तलाक व टूटते परिवार के पीछे सामाजिक चेतना की कमी व नियंत्रण का अभाव है। जिसमें भौतिक सम्पन्नता व बढ़ती प्रतिस्पद्र्धा और प्रबल महत्वाकांक्षा ने आग में घी में का काम किया है। परिवारजन के मध्य सेवा, त्याग, प्रेम-करुणा-वात्सल्य तथा पारिवारिक सम्बंधों की उष्मा महसूस करने के लिए किसी के पास न तो समय है न ही स्थान। सामजिक सम्बंधों में बढ़ती संवेदनहीनता ने परिवार की जड़ों को खोखला बना दिया है। हकीकत में यह उपभोक्तावादी संस्कृति का परिणाम है।

सामाजिक व्यवस्था के प्रति महिलाओं के बढ़ते आक्रोश पर उन्हीं की वेदना की अभिव्यक्ति किसी कवि की पक्तियों में…
ऐ मेरे हमनशी चल कहीं और चल,
इस चमन में अब अपना गुजारा नहीं।।
बात होती गुलों तक तो सह लेते हम,
अब तो कांटों पै भी हक हमारा नहीं।।

भूमण्डलीकरण ने जहां एक ओर भौगोलिक दूरियां कम की हैं, तकनीकी विकास द्वारा रोजगार के मार्ग प्रशस्त किए हैं वहीं दूसरी ओर वसुधैव कुटुम्बकम की भारतीय अवधारणा को ठेस पहुंचायी है। कामकाजी महिलाओं को घर से बाहर मिलने वाला असुरक्षित माहौल, भौतिकता की चकाचौंध तथा नव बाजारवाद ने महिलाओं को आकर्षक उपभोग की राह दिखाई, जिसने महिला को फैशन परस्ती व भोग विलास का पर्याय बना दिया। बढ़ते बाजारवाद, औद्योगिकीकरण तथा आधुनिकीरण ने स्त्री शोषण से जुड़ी पुरानी रूढिय़ों को पुन: खाद पानी देकर सम्पोषित किया है। वर्तमान में स्त्री ने सर्वाधिक उपभोक्ता वर्ग और सामान बेचने हेतु मनोरंजन व विज्ञापन के क्षेत्र में प्रवेश कर स्वयं को सशक्त बनाया है किन्तु उसकी आड़ में स्त्री की मर्यादा का दोहन अधिक हुआ है। स्त्री हिंसा और यौन जनित भेदभाव का शिकार होती गई, जिसने आर्थिक शोषण के नूतन आयाम प्रस्तुत कर महिला को उद्योग और बाजार के हाथों की कठपुतली बना दिया। स्त्री से नैतिक दायित्व वहन की अपेक्षा और मांग करने वाले समाज ने आर्थिक सामाजिक व राजनैतिक मुद्दों पर निर्णय के अधिकार से स्त्री को सदैव ही वंचित रखा है। शैक्षिक सुविधाएं, स्वतंत्रता तथा पौष्टिक भोजन पर पुरुषों का हक ही उसके श्रम की कीमत है किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि किसी राष्ट्र का विकास तभी संभव है जब वहां की महिलाएं विकसित एवं स्वस्थ हों। अगर हम पुरुष को राष्ट्र का स्तम्भ मानते हैं तो नारी उस स्तम्भ की धुरी है। इस हेतु हमें समाज की सोच में बदलाव लाना होगा। मानवीय जीवन कायम रखने की नई मजबूरियां सारी दुनिया की हैं। हमें जीवन के आदर्शों में आमूल चूल परिवर्तन करने हैं। स्त्री की अस्मिता से खिलवाड़ जब तक बंद नहीं होगा भारत चहुंमुखी विकास नहीं कर सकेगा। भारतीय संस्कृति की पहचान को भी अक्षुण्ण बनाते हुए नैतिक शिक्षा पर शिक्षण संस्थाओं में जोर दिया जाना जरूरी है।

और अंत में…
जालिमों अपनी किस्मत से नादान हो।
दौर बदलेगा ये वक्त की बात है।।
वो यकीनन सुनेगा सदायें मेरी
क्या तुम्हारा खुदा है हमारा नहीं।

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