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समाज में जागृति लाने का अहम दायित्व

Published: Aug 19, 2016 03:23:00 pm

साहित्यकार  दिखाता है समाज को दर्पण

Freelance Writer

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– चंद्रकांता शर्मा

समाज सामुदायिक भावनाओं की वह इकाई है, जिसके व्यापकता ग्रहण करने पर राष्ट्रीय स्वरूप सामने आता है। सामाजिक संदर्भो में समाज की रचना एक समन्वित सोच को पुष्ट करती है तथा एक चेतनाशील विचार बिन्दु को उभारती भी है। इस विचार के समन्वय से समाज में ठोस जागृति का भी स्वर बनता है। जो साहित्य के स्वरूप में साहित्यकार प्रतिपूरित करता है। साहित्यकार, समाज और सरकार इन तीनों इकाइयों से सामुदायिक विकास का मार्ग ही नहीं अपितु एक खुशहाल जीवन का व्यापक फलक भी तैयार होता है। साहित्यकार समाज को वह दर्पण भी दिखा देता है, जिसमें उसे वास्तविकतायें मिलती हैं और ये वास्तविकतायें समाज रचना का मार्ग खोलती हैं। साहित्यकार की भूमिका दोहरे रूप में भी समाजोपयोगी है। एक तो वह स्वयं दायित्वशील व्यक्ति के रूप में मिलता है, दूसरा वह समाज के लिए जो लिखता है वह परोपकारी होता है। इसके अलावा भी वह समसामयिक संदर्भो को व्याख्यपित कर भले-बुरे के अर्थ का खुलासा भी करता है।

अब सवाल यह आता है कि सरकार कैसे साहित्यकार और समाज के लिए मददगार बने ? तब यह बात जेहन में आये बिना नहीं रहती कि सरकार के कार्यक्रम और नीतियाँ जो समाज के लिए बनायी जाती हैं, रचनाकार की कसौटी पर किस रूप में, किस सीमा तक खरी उतरती हैं। वह परहित में सरकारी योजनाओं को अपने विचार बिन्दु पर तौलता-नापता है, तब सृजन का जो पुण्य प्रष्फुटित होता है, वह सरकार और समाज के लिए उपयोगी संदर्भ बनकर भविष्य की कार्य शैली को प्रभावित करता है। साहित्यकार की दायित्वशीलता का ही परिणाम है कि समाज एक अनुशासन को मानता है और भावाभिव्यक्ति में वह साहित्य को अपनाता है। अन्यथा यह तो संभव भी नहीं था कि समाज किसी संवेदना के बिना, संस्कृति के बहुआयामी कोणों को छू भी सकता है। ऐसे में सार्थक संवाद का जरिया बनकर साहित्य, सरकार और समाज को एक भावांजली समर्पित कर देता है। साहित्यकार का सरोकार समाज और सरकार दोनों से होने के कारण वह किंचित भी सोच को विकृत नहीं होने देता, क्योंकि उसे पता है कि उसकी उदासीनता एक सदी को भी उजाड़कर रख सकती है।

तब पीढ़ीगत दूरियाँ निःसंदेह तमाम वर्जनाओं को अस्वीकार कर उस लक्ष्य को विकल दिखाई देंगी, जिसमें कलागत ऊँचाई एक भव्य साधना केन्द्र को स्वीकार करती है। साहित्य का लेखन मनुष्य रंजन तथा उसको भेदाभेद को समझाने का एक माध्यम है, अब मनुष्य इसे पढ़ता है तो समाज की असंगतियों भला कैसे अपना स्वरूप साधे रह सकती हैं। वह सुख-दुख, रहन-सहन तथा युग का मानवीय संत्रास एक ऐसे स्वाभाविक प्रवाह के साथ प्रस्तुत करता है कि समाज को अपना पूरक मानकर उसे अपनाना होता है। यही विचार सरकार को जनकल्याण के व्यापक कार्यक्रमों के निर्माण में सहयोगी बनता है तथा तादात्म्य बन जाता है।

सवाल वर्तमान हालात में साहित्यकार के दायित्व में समाज और सरकार की भूमिका के आंकलन का भी है। क्या साहित्यकार जो कुछ लिख रहा है, वह बुनियादी है अथवा उसके सृजन का लक्ष्य सबके सुख की कामना है, इस दोहरे दायित्वों में सफलीभूत होने के बाद ही उसकी रचनायें नव निर्माण का काम कर पाती हैं। साहित्यकार सुविधायोगी बनकर जब सरकारी षड़यंत्र में सम्मिलित हो जाता है, तब यह समाज के लिए अनर्थकारी होता है तथा निर्माण कार्य गतिरोध के साथ पथभ्रष्ट होने से भी नहीं बच पाता। सरकारी तंत्र पर अंकुष बनाये रखने में साहित्यकार का सार्थकता की बात नयी नहीं है। समाज की चेतना और जागरण में दिया निर्देष का महती कार्य भी वह निष्पादित करता है। साहित्य की धुरी जब चलती है तब समाज और सरकार का स्वरूप अपने आप स्पष्ट होने लगता है। तब यह भावणात्मक संकुचन नहीं रहता तथा विवेकषील संभावनाएँ जड़ता को मिटाती हैं।

सामाजिक संवेदनायें इतनी कोमलता लिए होती हैं कि इनके प्रति बरती गई तनिक सी उदासीनता भी लक्ष्य से भटकाने को पर्याप्त होती हैं। सांस्कृतिक जीवन की परम्परावादी विरासत को जो धरातल मिलता है, वह भी समाज से ही मिलता है। अन्यथा समय की गति इस विभ्रम को ठहरने नहीं देती तथा मान्यतायें क्षण-क्षण बदलाव को अपनाती चलती है। किताब इसका पुष्ट उदाहरण है। यह मरती नहीं तथा अपने साथ समय की तमाम विशेषताओं और विसंगतियों को साथ लेकर चलती हैं। पुस्तक से इतिहास का कालक्रम तय होता है तथा समसामयिक संदर्भो को मार्ग मिलता है। साहित्यकार की दृष्टि से वह सब छूट नहीं पाता, जो सामान्यतया अनदेखी का शिकार रहता है।

इसी चोकसी और सजगता से समाज और सरकार की आँख बन जाता है। इस दृष्टि का पा लेने के बाद अन्र्तअनुषासनीयता सापेक्ष होती है तथा हमारे तमाम सरोकार अर्थ पाते रहते हैं।

साहित्यकार की एक पुस्तक समाज में उथल-पुथल तथा सामाजिक बदलाव का जब कारण बनती है तो साम्राज्यवादी ताकतें भी नहीं ठहर पातीं। रूस तथा फ्राँस की क्रांतियों में जो साहित्य की भूमिका रही है वह इतिहास का ऐसा पृष्ठ तैयार कर गई है जो जिसमें साहित्य अथवा विचारों का प्रभाव सदियों तक सुरक्षित रहेगा। यह विचार शक्ति जो बदलाव, क्रांति अथवा खुषहाल जीवन की प्राप्ति का साधन बनती है, वह ऐसी संचित निधि है, जो सामाजिक सरोकारों को हर कोण से आकृष्ट किए रहती है। वर्तमान दौर में समाज और सरकार में भ्रष्टता बढ़ी है तो साहित्यकार की अनदेखी ने एक मिलीजुली अराजकता को पनपाया है। यह तो स्पष्ट ही है कि भौतिक लालसाओं ने लोक तांत्रिक व्यवस्था को चैपट कर एक बर्बरतापूर्ण हालात को उभारा है। सभी ने अपनी भूमिकाओं को भुलाया है। एक ऐसा जंगलतंत्र सामने आया है, जिसमें जीवन संघर्ष ताकतवर के लिए कम हो गया है तथा छोटे जीव अपने को बचाने में विफल और असहाय हो गये हैं।

साहित्यकार को इस सड़ांध और बदबू को समझकर सामयिक विकृतियों के लिए नये कारगर ढ़ंग से सोचना होगा। साहित्यकार की पुस्तक क्यों नहीं अब कोई हंगामा कर पाती। केवल चारित्रिक हनन तथा राजनेतिक दुराचरण का पर्दाफाश ही समूचा आदर्श नहीं है, अपितु एक नैतिक वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार कर जनसामान्य को राष्ट्रीय हितों से जुड़ने का आह्वान की भी जरुरत है।
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