– डॉ विमलेश शर्मा
भावनाओं के गुलाबी सैलाब में बहते हुए हम स्त्रियाँ, ना को हमारे शब्दकोश का विरोधी शब्द मान बैठती हैं। जब हमारा मन ही ना का आदी नहीं तो फ़िर परिवेश से समझदारी की आशा करना तो बेमानी है ना। दोष इस हामी में इनका कहाँ है, ये कमबख्त लड़कियाँ गर्भ से ही सहनशीलता का रसायन चखकर इंच-इंच बढ़ती हैं। वहां भी संघर्षों से जूझ कर दुनिया की ना को हाँ समझकर जीवन में कदम रखती है पर हर बार एक ना का सामना कर सहम जाती हैं। यह परिवेश उस पर ना की कितनी ओढ़नियाँ ओढ़ाता है, इसे तो गिनना ही संभव नहीं। और इन्हीं जबरन पैराहनों में उसका कोमल मन कहीं छिप जाता है। जमाने की ना उस पर इतनी हावी हो जाती है कि वह अपनी ना भूला बैठती है और अगर कभी अपनी चेतना से ना कह भी दे तो बागी घोषित कर दी जाती है।
आप संदेश देते हैं कि स्त्री की ना का सम्मान होना चाहिए। ज़रा कार्य स्थलों पर गौर फ़रमाइए.. दुगुनी मुस्तैदी से काम करने पर भी यह सामंती मानसिकता उसे दोयम ठहराने का पूरा प्रयास करेगी। उसकी किसी कार्य की असमर्थ ना को वहाँ उसके स्त्रीत्व से जोड़ दिया जाएगा,और फ़िर छींटाकशी। कई महिलाएं ऐसे ही कारणों से अवसाद में आ जाती हैं और बात वही कि वह ना कहने में उतनी सहज नहीं हो पायी जितना कि अन्य वर्ग।
ना तो स्वत्व की रक्षा में निर्भया ने भी कही थी और इस लड़की सौम्या जैसी कई अन्याओं ने भी पर क्या वह सुनी गयी? ना तो हर वो स्त्री कहती है जो समाज की क्रूरता का जवाब अपने हौंसले से देती है पर क्या आप उस ना के आदी हैं? ना हर वो स्त्री कहती है जो अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना चुनती है पर क्या आप उस ना के आदी हैं? क्या आप उसे वह सम्मान दे पाए हैं जिसकी वह अधिकारी है?
शायद नहीं.. बस इसीलिए ना सुनने की आदत डालिए, इसे अपने उस फौलादी अहं पर चोट मत समझिए । हाँ या ना यह उस जीवन के जीने का प्रमाण है जिसे आप खिलखिलाते देखने के आदी नहीं है। ना सुनिए, दुनिया की खूबसूरती शायद आपकी इस आदत से ही कुछ और खिल जाए…बढ़ जाए…
किसी शायर ने ठीक ही तो कहा है..
लफ़्ज़ों के इत्तिफ़ाक़ में, यूँ बदलाव करके देख,
तू देखकर ना मुस्कुरा, बस मुस्कुरा के देख…
ये मुस्कुराहट कटाक्ष के बजाय सम्मान के साथ आए तो कितनी बातें बन सकती हैं… हैं ना?
– लेखिका युवा कवि एवं साहित्यकार हैं