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नई चित्रकला में परपंरा का जोखिम,  जन-जन तक पहुंचे कला की विराटता

Published: Jan 11, 2017 03:21:00 pm

आधुनिक चित्रकला के लिए परम्परा प्रारम्भ से ही खतरा बनकर सामने आई है

modern art painting gallerys

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– चन्द्रकान्ता शर्मा
आधुनिक चित्रकला के लिए परम्परा प्रारम्भ से ही खतरा बनकर सामने आई है तथा इस जोखिम से बचने के लिए नये चित्रकारों ने मूर्त-अमूर्त संरचनाओं के जरिए जिस लोक को जन्म दिया। वह बेहद ऊहापोह तथा व्यर्थ की जटिलताओं से भरा रहा है। यह सत्य है कि नई चित्रकला का भी आज एक इतिहास-दर्शन तथा व्याकरण बन गया है। परन्तु वह इतना समर्थ किसी मायने में आज भी नहीं है। जितना पारम्परिक चित्रों की सुघड़ता तथा भाव सम्प्रेषण की तुलना करके देखा जाए तो।

मोटे तौर पर आधुनिक चित्रकला आम आदमी की राय में आड़ी-तिरछी रेखाओं तथा रंगों की वैविध्य रूपी वह जाल है। जिसे मानस को न तो संतोष मिल पाता है और न उसे देखने की प्रबल ललक जग पाती है। हालांकि आधुनिक चित्रकला के पक्षधरों की राय में यह कला अपने दर्शन में सर्वोत्कृष्ट तथा परिवेशगत सच्चाइयों का आइना है परन्तु असलियत यह है कि नई चित्रकला में नीरसता तथा ऊब का प्रतिशत नए चितेरों की संख्या की तरह निरन्तर बढ़ता जा रहा है। क्या परम्परा नई चित्रकला का आधार नहीं बन सकती या कि चित्रकला की परम्परा उन बिन्दुओं पर समन्वय क्यों नहीं कर पाती। जहाँ कला अधुनातमव पुरातन का अवलंब पाकर प्रियदर्शी बन सकती हों।

ऐसा तो नहीं है कि आधुनिक चित्रकारों ने कला दृष्टि का परिचय न दिया हो या वे आधुनिक चित्रांकन परम्परा में जीवनगत सच्चाइयों को साक्षात न कर पाए हों। परन्तु यह सत्य सौ फीसदी सच है कि यह अंकल उतनी समझ विकसित करने में असमर्थ रहा है। जो इस कला की लोकप्रियता के लिए अपेक्षित है। यदि नयी कला को आमजन की पकड़ तक नहीं पहुँचाना है तो फिर उसकी सृजनात्मकता का अर्थ हम सामाजिक संदर्भ में किस रूप में कहाँ तक समझें। नई कला में जिस अमूर्त कल्पना को चित्रकार साकार करता है। वह इतना ग्रस्थ नहीं है जितना कि हमारे आमजन का बौद्धिक स्तर है। अब इसकी दलील में यह कहा जाएगा कि आधुनिक चित्रकला ऐसी जनवादी नहीं है कि आम आदमी की समझ में भी आने लगे तो इसका अर्थ यही माने कि यह रचना चित्रकार का सुख तथा आभिजात्य वर्ग की शौकिया सनक का अव्यावहारिक रूप है।

खानों, चौखानों, गोलाकारों तथा तिकोनों में भरे हल्के-चटख रंगों का एक कैनवास कोई खास आकृति नहीं उभारता या कि स्याह-सफेद के जरिये रेखाएं एक विचित्र अंकन करती हैं तथा फकत आँखों के भली लग रही हैं। इसी आधार पर उसकी सम्पूर्ण सार्थकता को मापना समुचित नहीं है। हर कला, साहित्य, संस्कृति का अपना एक लक्ष्य होता है। चाहे ज्ञान के स्तर पर हो अथवा मनोरंजन के स्तर पर किसी न किसी रस की उत्पत्ति उसे देखने-पढऩे के बाद होती है। आधुनिक चित्रकारों में बेटे, रामकुमार, हेब्बार, हुसरेन तथा इन्हीं चित्रकारों के समकालीनों की एक पीढ़ी तो अपने चित्रों से एक संवेदना की अनुभूति कराती है। परन्तु जिस नई पीढ़ी ने आधुनिकता का आसरा लेकर कैनवास रंगना शुरू किया है। वह खीझ-ऊब तथा बोरियत का अहसास कराती है। गहराई से नई चित्रकला के नए संदर्भो की बात करें तो इतनी विविधता चारों ओर बिखरी पड़ी है कि पारम्परिक चित्रों के मुकाबले में यह कला कहीं ज्यादा जनप्रियता के करीब पहुँच सकती है।

आधुनिक चित्र दीर्घाओं को देखिए, वहाँ लगने वाली चित्र प्रदर्शनियाँ एक ही तरह के काम रेंग व आकारों से भरी पड़ी हैं। एकाध प्रदर्शनों को छोड़कर कहीं-कोई नवीनता व ताजगी नहीं दिखती। नए चित्रकारों की चित्रकृतियाँ जो एम्पोरियम्स में बिकती हैं। उससे इसका व्यावसायिक पक्ष तो तनिक उज्ज्वलता ग्रहण कर पाया है। परन्तु उनमें वह तमाम चित्रकार शरीक नहीं हो सके हैं। जो इस काल को वर्षों से तहेदिल से अपनाए हुए हैं। उन्हें आमतौर पर घरों में चित्रों का ढ़ेर लगाते या मित्रों को जबरन भेंट करते अथवा अकेडेमीज में बिक्री की जुगाड़ करते देखा जा सकता है। नई चित्रकला के लिए यह जो खतरा बना है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है, इसके लिए ज्यादा गहराई से विचार की जरूरत है नहीं, इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। जो उसे परम्पराओं से दूर ले जा रही हैं।

पारम्परिक समाज व लोगों के बीच आप जिस अनूठे अमूर्त को सृजन की संज्ञा दे रहे हैं। वह उनकी समझ से परे हैं। आप भले सृजन में सम्पूर्ण विश्वशांति का सूत्र खोज रहे हैं। परन्तु उसकी रागात्मकता हमारे मध्य विद्यमान परम्पराओं से तालमेल नहीं बैठा पा रही हैं। इस हालात में फिर वहीं प्रश्न खड़ा होता है कि चित्रकला के नए अंकन में परम्परा को भी स्थान दिया जावे तो क्या वह उसके लिए हानिकर है या लाभदायी इसके उत्तर में ठोस आधार हमें जो मिलते हैं, वे सकारात्मक हैं। अत: कला में परम्परा की उपस्थिति किसी कोण से वीभत्स नहीं हो सकती और न आधुनिकता के लेबल को ही कोई खतरा उत्पन्न होने वाला है, जिसे चित्रकार ने अपने साथ आजीवन लगाना चाहा है।

हमारे समाज एवं राष्ट्र तथा जीवन में सौ हादसे, अनहोनियाँ, विलक्षणताएं, क्रूरताएं, हिंसाएं, सौहाद्रतायें, सुख.दुख के क्षण विविध रंगी बनकर आते हैं और हम फकत केवल कल्पना में उस निराकार की तलाश में भटक रहे हैं। जिसकी स्थापना साकार व सगुणोपासकों के बीच करना सहज नहीं है। फिर हम इतने संवेदनशून्य भी नहीं हैं कि परिवेशगत सच्चाइयाँ हमें तनिक भी विचलित न कर पाती हों। जब यह सत्य है तो उस साकार को आकार देना कहा पारम्परिक हुआ। वह तो सर्वथा नवीन यथार्थवादी प्रयोग ही माना जायेगा। इस अर्थ में परम्परा व आधुनिकता का निर्वाह पूरी तरह हो सकता है तथा जिस मूल्य की स्थापना का लक्ष्य है। उसके करीब भी हम पहुँच सकते हैं।

समकालीन कला के चित्रकारों ने समय की जिम्मेदारी को समझा है तथा उसे स्पष्ट भी किया है तथा उस और दूर तक इशारा भी किया है। जिसकी जरूरत है, परन्तु जिस मात्रा व गति से आधुनिक चित्रफलक रंगे जा रहे हैं, वे सार्थक व शक्तिवान नहीं बन सके हैं। प्रयोगधर्मिता को बतौर शोक ऊल-जलूल ढंग़ से निराकार परम ब्रह्म में विलीन करना नई चित्रकला को किसी कीमत पर लाभकारी नहीं हो सकता है। आधुनिक चित्रकला के नियंताओं ने इस कला के संदर्भ में अपने आप को इतना स्वतंत्र मान लिया है कि इसमें अपने आप को किसी भी रूप में बांधना वे पसन्द नहीं करते। कोई नियमावली, कोई सीमा तथा व्याकरण मानने को तैयार नहीं है। यही वजह है कि नई चित्रकला की यही छूट दिनों-दिन भावशून्यता की ओर बढ़ रही है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि कला में परम्परा के वे भाव निरूपित किये जावें। जिससे उसका स्वरूप जन-जन तक विराटता से पहुँच सकें तथा उन खतरों से बच सकें। जो परिवेश से कटने के बाद समकालीन कला के सामने आ खड़े हुए हैं।

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