– डॉ. विमलेश शर्मा
राजस्थान के जिस परिवेश में पली-बढ़ी हूँ यह बात बहुत छुटपन से जानती समझती आयी हूँ कि एक स्त्री के लिए पुत्र की प्राप्ति उसके लिए नहीं तो परिवार और समाज के लिए तो हद ज़रूरी हो ही जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि कितना खैरख्वाह है यह समाज कि किसी नवोढ़ा के संतान नहीं होने से लेकर प्रारंभ हुई उसकी यह चिंता उस दम्पति के पुत्र प्राप्ति तक विराम नहीं लेती है।
दो बेटियों की माँ को क्या-क्या और किस कदर समाज आशीष देता है और उस आशीष की आड़ में तानें कसता है उसकी गवाह तो मैं स्वयं भी रही हूँ। समाज हँसते-हँसते कहता है कि दो बहनों को चूनर ओढ़ाने के लिए भाई तो होना ही चाहिए जैसे कि वो चूनर नियति के क्रूर प्रहारों को सह लेगी। कमोबेश ऐसी ही जाने कितनी -कितनी चौंकाने वाली बातें स्त्री के मन में बीज रुप में बचपन से ही परिवेश बो देता है। यह मानसिकता समाज के कर्मकांडों और पर्वों को मनाए जाने की सतत परंपरा से पोषित होती रहती है। आम लड़की इस सोच से बाहर आ ही नहीं पाती और इस तरह अपनी कोख को पुंसवादी रंग देना उसकी मानसिक ज़रूरत बन जाता है।
राजस्थान, हरियाणा की पढ़ी-लिखी लड़कियों के बारे में क्या कहा जा सकता है ये शिक्षाविद् बेहतर जानते हैं। यहॉ हर लड़की मानविकी के किसी ना किसी विषय में स्नातक या स्नातकोत्तर करती हुई मिलेगी पर प्रगतिशीलता के मामले में बेड़ियों में जकड़ी मिलेंगी । इनका चलना, उठना, खाना-पीना, हँसना, बोलना, पहनना सब कुछ समाज तय करेगा तो फिर ज़रा सोचिए कि संतान उत्पत्ति जैसा महत्वपूर्ण निर्णय क्या महिला का स्वयं का हो सकता है?
हाल ही में घटी घटना में प्रथम दृष्टि से देखने पर माँ अपनी अबोध नन्हीं कोंपल की निर्मम हत्या की दोषी दिखाई देती है, पर वाकई क्या सिर्फ ऐसा ही है जितना दिखाई दे रहा है? पूरे प्रकरण में समाज मूकदर्शक की भूमिका में नज़र आता है, पुत्र प्राप्ति के लिए बार-बार गर्भपात, हवन पूजा तथा कर्मकांड क्या केवल स्त्री की इच्छा से संभव है? कई प्रश्नवाचक चिन्ह है पर समाज को शायद ये भी दिखाई नहीं देंगे। स्त्री सदा ऐसे अपराधों में धकेली जाती है और इसके लिए केवल और केवल समाज की दकियानूसी मानसिकता ही उत्तरदायी है।
रोज-रोज के तानों से हलकान होता मन कैसा महसूस करता है यह या तो कोई मनोवैज्ञानिक ही समझ सकता है या फ़िर स्वयं स्त्री। ऐसे मामलों में केवल और केवल स्त्री को बलि का बकरा बना कर सारा दोष उसके माथे नही मढ़ा जा सकता। ऐसे अपराधों में वह स्त्री और उसके साथ समाज और वह परिवेश भी उतना ही दोषी है जो ऐसी मानसिकता को पोषित करता है। सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण से व्यक्ति तक आती इस कुत्सित सोच को रोकने के लिए ऐसे मामलों में सभी दोषियों के लिए सामूहिक स्तर पर कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए जो समाज की ऐसी आपराधिक सोच के लिए एक नज़ीर बन सके। कन्या हत्या के साथ-साथ ही केवल और केवल स्त्री को कटघरे में खड़ा करने की कुत्सित सोच के प्रति भी मैं अपना विरोध दर्ज़ करती हूँ।
(लेखिका युवा कवि एवं साहित्यकार है – फेसबुक वाल से)