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मनचलों की नजरों को करें ठीक, छेड़छाड़ की घटनाओं का विरोध करें

Published: Oct 17, 2016 03:59:00 pm

अक्सर विक्षिप्त लोग भी आपत्तिजनक हालत में परिसर के इर्द-गिर्द अजीबोगरीब हरकतें करते नजऱ आते हैं

rape

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– डॉ. विमलेश शर्मा

जो जितना दर्द सहता है वो उतना ही चुपचाप दरकता है…पर ये दरकन बेआवाज नहीं होती। क्या आपने किसी कोमल कोंपल को कभी मुरझाते हुए देखा है? गर उसे देखेंगे तो पाएंगें कि हमारी नैतिकता के मापदण्ड कितने भोथरे और एक जटिल प्रमेय भर हैं। मैंने अनेक बार अपने ही कॉलेज में कई छात्राओं को सहमे हुए और एक अजनबी खौफ से तारी होते हुए देखा है। बार-बार पूछने और मनोवैज्ञानिक खुराक देने पर पता चलता है कि वह फिर किसी फब्ती और छेड़छाड़ का शिकार हुई है।

अक्सर विक्षिप्त लोग भी आपत्तिजनक हालत में परिसर के इर्द-गिर्द अजीबोगरीब हरकतें करते नजऱ आते हैं। लगातार घटती इन घटनाओं को देखकर यह सवाल बार-बार जेहन में आता है कि महाविद्यालय परिसर और शैक्षिक संस्थानों में तो छात्राएं महफूज हैं, पर यह शोहदों का हुजूम जो बाहर उमड़ा रहता है उनसे बचाने की जिम्मेदार भूमिका आखिर कौन तय करेगा । इस आवारगी और उच्छृंखलता के जमावड़े के आगे अक्सर प्रशासन हार जाता है। आवारगी करते ये युवक भय मिश्रित एक असहज माहौल का निर्माण करते हैं। अजमेर शहर के राजकीय कन्या महाविद्यालय की ही बात की जाय तो यहां लड़कियां पढऩे के लिए सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से अलसुबह चल कर आती हैं।

सहज आत्मीय परिवेश से निकली ये कौंपले कई बार छेड़छाड़ के इन प्रसंगों से और पीछा करती नजरों से इतनी आहत हो जाती हैं कि वे नियमित महाविद्यालय आना ही छोड़ देती हैं। लड़कियों के इन मानसिक तनाव के हालातों पर मीर याद आ जाते हैं कि आखिर इस तरह बज़्म में गुजऱ किस तरह की जाय- ‘यूं भी मुश्किल है वो भी मुश्किल है, सर झुकाए गुजर करें क्यों कर…’ हम भले ही 21वीं सदीं में पहुंचने की बात करते हैं पर स्त्री जीवन और उसका यह रोजनामचा कुछ औऱ ही बयां करता है। वास्तविक जीवन में आदर्श की कल्पना ही यूटोपिया है और फि र स्त्री मन के आदर्श तो रोज छलनी होते हैं। यह आदर्श तब टूटता है जब कोई घूर-घूर कर भरोसे की आंख में कंकड़ चुभा जाया करता है। हमारी लड़कियों का यह टूटा भरोसा फिर से कायम हो, इसके लिए समाज को आगे आना होगा।

आग्रह है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसे रोकिए। होता यह है कि हम मूकदर्शक बन कर बस अपनी बारी आने का इंतज़ार कर रहे होते हैं। लड़कियों के पहनावे औऱ उनकी हंसी पर पाबन्दी लगाने के बजाय प्रयास उन आंखों की रंगीनी उतारने का होना चाहिए जो बेमतलब किसी को परेशान करने में ही अपने लिजलिजे अहं की तुष्टि करते हैं। लड़कियों के इर्द-गिर्द उड़ते इन मनचलों की नजऱों को ठीक करने के लिए शहर प्रशासन औऱ जन समुदाय को सख्ती बरतनी होगी अन्यथा हमारे शैक्षिक संस्थानों की बाहरी सड़कें अप्रिय घटनाओं, उच्छृंखलता औऱ असामाजिक व्यवहार की शरणगाह बन जाएंगी।

लेख्रिका युवा साहित्यकार एवं कवि हैं।
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