scriptपराये आशियाने बनाने में लगीं हैं | They are constructing others home but none for themselves | Patrika News

पराये आशियाने बनाने में लगीं हैं

Published: Dec 06, 2016 05:30:00 pm

महिला श्रमिकों का दर्द कौन सुनेगा

demonetisation and mining labour

demonetisation and mining labour

– किरण सिन्धु

आजकल महानगरों में “रियल- स्टेट “, “प्रोपर्टी – डीलर”, ” बिल्डर” आदि शब्द बहुप्रचलित हैं। कहीं कोई अपार्टमेन्ट बन रहा है तो कहीं किसी का आवास। इन सबके निर्माण में जिन हाथों का सक्रिय योगदान है, वे हाथ उन मजदूरों के हैं जो आजीवन मजदूरी करने के बाद भी अपने लिए एक स्थायी आवास नहीं बना पाते। किसी एक भवन निर्माण का काम समाप्त होते ही अपने परिवार के साथ नये काम और नये आशियाने की तलाश में निकल पड़ते हैं।

मैं जिस घर में रह्ती हूँ, उसके ठीक सामने एक इमारत बनाई जा रही है। सुबह आठ बजते-बजते मजदूर पुरुष – महिलाएँ काम पर आ जाते हैं। अभी खुदाई का काम चल रहा है। पुरुष कुदाल से मिट्टी खोदते हैं जिसे महिलाएँ टोकरे में भर कर एक – दूसरे की सहायता से सिर पर रख कर बाहर की तरफ ले जाती हैं। अपनी बल्कनी में बैठे – बैठे मैं इन्की गतिविधियों को देखती रह्ती हूँ। जीविका की आपाधापी में ये मजदूर अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं का या यों कहें इच्छाओं का किस तरह गला घोंटते है इसे शब्दों में वर्णित करना असम्भव है।

सामने के पेड के नीचे एक मजदूर अपने परिवार के साथ पहुँच गया है। अभी सुबह के सात बजे हैं। उसके दो बच्चे हैं जिनके हाथों मे एक – एक थैला है जिसे वे बहुत ही कठिनाइ से लाए होंगे। पेड की डाली से एक साडी लटक रही है, जिसमें कोई गठरीनुमा वस्तु रखी गई है। मैं मन ही मन सोंचती हूँ, शायद खाने का सामान है जिसे वे जमीन पर नहीं रखना चाहते होंगे। मजदूर – दम्पति काम पर चले जाते हैं और उनके दोनो बच्चे उसी पेड के नीचे अपनी धरोहर के रक्षक बन कर तैनात हैं।

बच्चों में बेटी बडी है, जो थोडी – थोडी देर के अन्तराल पर हल्के से उस गठरीनुमा वस्तु को हिला देती है। करीब नौ बजे वह अम्मा – अम्मा कह्ती हुई अपनी माँ को पुकारती है और साथ में उस गठरी की तरफ संकेत भी करती है। मजदूरनी माँ आकर झोले से एक प्लास्टिक की बोतल निकालती है जिसमें पानी भरा है। अपने दोनों हाथों को धोने के बाद वह गठरी की तरफ बढ़ी. मुझे लगा शायद बच्ची को भूख लगी है अतः खाने के लिए कुछ माँग रही है। लेकिन मैं गलत थी।

मजदूरनी ने पेड से लटकी साडी से बने झूले में से एक नन्हे से शिशु को निकाला और वहीं पेड के तने से लग कर बैठ गई और उसे दूध पिलाने लगी। शिशु की उम्र लगभग दो महीने होगी। मैया ने तेल लगा कर उसकी अच्छी मालिश की थी। इतनी दूर से भी शिशु का नन्हा सा चेहरा चमक रहा था.मुश्किल से पन्द्रह- बीस मिनट बीते होंगे, सुपर्वाइजर चिल्ला कर उसे वापस काम पर बुलाने लगा। मजदूरनी ने पुनः शिशु को उस तथाकथित झूले में सुला दिया और काम पर लौट गई। बच्चा अभी भी सोया नहीं था क्योंकि उसकी कुन्मुनाहट की हल्की- हल्की हरकत बाहर से भी देखी जा सकती थी। मजदूरनी की बेटी हल्के हाथों से झूले को हिलाने लगी। मैं अपनी बाल्कोनी की रेलिंग पर अपने दोनों हथों को टिकाए यही सोंचती हूँ….. क्या जाने उस बच्चे का पेट भरा भी या नहीं?

– ब्लॉग से साभार
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