scriptकठिन होता बुनकरों का जीविकोपार्जन | Weavers find hard to earn bread and butter | Patrika News

कठिन होता बुनकरों का जीविकोपार्जन

Published: Oct 26, 2016 04:02:00 pm

बुनकरों को आर्थिक प्रोत्साहन मिले

Weaver is number one in the state of Rajnandgaon

Weaver is number one in the state of Rajnandgaon

– चन्द्रकान्ता शर्मा

राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में जुलाहों का जीविकोपार्जन दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है। औद्योगिक विकास की लहर गाँव में पहुँच जाने से जुलाहों को रोटी के लाले पड़ गये हैं। जुलाहें जिन्हें बुनकर तथा कोली नाम से भी जाना जाता रहा है, समाज में स्थित अन्य जातियों की तरह एक उपेक्षित जाति है। इन लोगों की बस्तियाँ भी गाँवों में सवर्ण लोगों से अलग-थलग एक और ही पाई जाती है। दीन-हीन हाल अवस्था में जी रहे जुलाहें अब शनै:शनै: रोटी की जुगाड़ में अपने मूल कार्य को छोड़ते जा रहे हैं और अन्य धंधे अपनाने को बाध्य हो रहे हैं।

जुलाहा मूलत: सूत कातकर उनकी घुर्टियों से ताने-बाने पर मोटे रेजे बनाने का काम करता रहा है। यह रेजे रजाईयाँ-लिहाज तथा अन्य मोटे कपड़े से बनने वाली पोशाक बनाने के काम आता रहा है। इसके अतिरिक्त जुलाहा ऐसा मोटा कपड़ा भी हाथ से बुनता रहा है जो ग्रामीणों के अंगरखे, कुर्ते, कमीज तथा धोतियों के काम में आता रहा है। अब भी वैसे ग्रामीण इलाकों में जुलाहों के साप्ताहिक बाजार (हटवाड़ा) लगते हैं। जिनमें आस-पास का जुलाहा वर्ग आकर इक_ा होता है। इन बाजारों में फुटकर बिक्री के अतिरिक्त वर्णिक वर्ग द्वारा थोक के भाव से खरीद होती है जिन्हें दुकानदार लोग रंगवाकर रजाईयाँ बनवाने के काम में मुख्य रूप से काम लेते हैं। परन्तु अब तो गाँवों में भी शहरों की हवा पहुँच गई है, इसलिए मोटे रेजे का चलन समाप्त प्राय: होता जा रहा है तथा उसकी एवज मीलों में बने कपड़ों के वस्त्र तथा जाड़े के लिहाफ व रजाईयाँ तैयार कर काम में ली जाने लगी हैं।

वैसे रेजे की रजाईयाँ सर्दी में मील के कपड़े की तुलना में अधिक गर्माहट तथा आरामदायक होती है साथ ही साथ सस्ती और अधिक समय तक चलने वाली भी। लेकिन गाँवों में नयी शहरी हवा ने रेजे के कपड़े की भयंकर उपेक्षा कर दी है। जिससे ग्रामीण जुलाहों का यह मूल धंधा निरन्तर चौपट होता जा रहा है। गाँवों में बड़ी ही दयनीय स्थिति में पारम्परिक रहन-सहन के वातावरण में रह रहे जुलाहे गरीबों की रेखा से भी नीचे का जीवन स्तर जीने को विवश हैं। महाजनी प्रथा के शिकार ये जुलाहे ऋणग्रस्त जीवन को समर्पित हैं तथा यही कारण है कि इस गिरी हुई माली हालत के कारण वे लोग न तो स्वयं शिक्षित हो पाये न ही उनके बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का ही कोई प्रबन्ध है। अशिक्षा के घोर दायरे में रहने के कारण सरकारी नोकरियों में भी इन लोगों का कार्य के अवसर सुलभ नहीं हो पाते हैं। राजस्थान के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों के संवेक्षण के बाद यह देखने में आया है कि बुनकर अपने बुनने का कार्य छोड़कर अब या तो सिलाई का कार्य करने लगे हैं या फिर बाजा बजाने का कार्य अपनाया गया है। कहीं-कहीं कोली समाज बागान तथा खेती-बाड़ी की और भी मुड़ा है। सिलाई तथा बाजा बजाने का यह कार्य ऐसा है जिसका गाँवों में कोई अच्छा भविष्य नहीं है।

शादी-ब्याह के अवसर पर ही सिलाई और बाजों का महत्व बढ़ता है वरना गाँवों में इन साधनों का उपयोग इतना अधिक नहीं है। फिर सिलाई तथा बाजा बजाने की दरें भी शहरों की तुलना में गाँवों में कई गुना कम है। इसलिए मूल धंधे से कट कर भी जिन्दगी बोझ बनी हुई है। अधिकांश जुलाहों के पास कच्चे घर तथा न्यूनतम आवश्यकताओं का जीवन है। घरों में एक या तो तथाकथित कमरे व टूटी-फूटी दीवारें हैं। छोटे-छोटे दायरों में बने इन घरों में जुलाहें बच्चों का लालन-पालन तथा अपने स्वयं का गुजर-बसर कर रहे हैं। सर्दी-गर्मी तथा वर्षा से बचने के लिए व समुचित वस्त्र हैं और मकान आए दिन हारी-बीमारी के जाल में उलझा कबीर पंथी जुलाहों ‘ज्यों की त्यों घर दीनी चदरियाँÓ वाली कहावत चरितार्थ कर रहा है। पेट की आग शांत करने के सिवा उसने अपनी आवश्यकताओं को आज तक नहीं बढ़ाया है। जीवन में तो ये लोग गरीब हैं ही चरित्र तथा बोल-चाल में भी गरीबी झलकती है। इनमें आमतौर पर सादगी ही पाई गई है। अधिकांश कोलियों में पाया गया है कि ये शराब के नशे से दूर रहते हैं। यहाँ तक कि धुम्रपान तक के नशे या तले से बचे हुए हैं। इतनी न्यून आवश्यकताओं वाला यह वर्ग फिर भी जीविकोपार्जन में औद्योगिक विकास की तेज गति तथा सरकारी उपेक्षा के कारण असमर्थ हो गया है।

आज आवश्यकता है इस वर्ग के कुटीर उद्योगों को बढ़ावा तथा प्रोत्साहन देने की। सरकारी सुविधाओं के जरिये ये लोग रोजी-रोटी की बड़ी आवश्यकता से आसानी से निपट सकते हैं। इनके नष्ट होते उद्योगों को बचाने के लिए बैंकों से सस्ती ब्याज की दर पर ऋणों की सुविधा दी जानी चाहिए तथा इनके बुनाई के पारम्परिक औजारों में आधुनिक तकनीक के माध्यम से उत्पादन वृद्धि की जानी चाहिए। इन औजारों में तथा साधनों में यह तकनीक विकसित हो कि कपड़ा अच्छा तथा बारीक रूप में उत्पादित किया जा सके और लागत कम आने से यह कुटीर उद्योग मील के कपड़ों की तुलना में बाजार में ठहर सके। इसके अतिरिक्त इस मोटे कपड़ों से ऐसी कलात्मक पोशाकें भी विकसित की जानी चाहिए जो शहरों के बड़े-बड़े एम्पोरियम में बिक्री के लिए रखी जा सके। भारत की मूल पौशाकों की बिक्री विदेशी पर्यटकों में धड़ल्ले से की जाकर विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है। इसके लिए जुलाहों को सरकारी स्तर पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।

ताकि वे अपने पारम्परिक रूप से हटकर युगानुकूल वस्त्रों का उत्पादन भी कर सकें। इन्हें स्वस्थ जीवन दिये जाने के लिए कम दाम पर भूमि व मकान आवंटित कर आवासित भी किया जाना चाहिए। ताकि वे लोग खुली हवा में रहकर स्वस्थप्रद जीवन जी सकें। जुलाहों को ग्रामीण क्षेत्रों के बाजारों के अलावा शहरी इलाकों में भी बाजार की सुविधा दी जानी चाहिए। ताकि वे अपनी तकनीक का उपयोग इन क्षेत्रों की बहुतायत से कर सके। गरीबी से ऊपर का जीवन जीने के लिए इन्हें शिक्षित करने को प्रोत्साहित तथा आर्थिक मदद की जानी चाहिए और नोकरियों में वरीयता से चयन हो।


राज्य सरकारों के लघु उद्योग नियमों को इनके धंधे के विकास के लिए योजनाओं को मूर्त रूप देने का प्रयास करना चाहिए तथा इन्हें ‘कारीगरÓ रूप में अपने यह काम के अवसर भी सुलभ करवाने चाहिए। अन्यथा भारत का यह पारम्परिक वस्त्र निर्माता अकाल काल की गोद में समाता चला जायेगा और यह कुटीर उद्योग अपने आप भूली बिसरी इतिहास की बात बनकर रह जायेगा। इन्हें आर्थिक, शैक्षणिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीति स्तर पर प्रोत्साहित किया जाना वर्तमान व्यवस्था और हम सबका पुनीत दायित्व है। इस नष्ट होते उद्योग को बचाया जाना कर्तव्य है।
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