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स्त्री की लाचारी के ये सब हैं किरदार

Published: Jul 21, 2017 04:32:00 pm

समाज का एक हिस्सा कह ले या इसे ही हम समाज कह ले, ज्यादा अंतर नही होगा

sawan celebration of women group in raipur

sawan celebration of women group in raipur

– कल्पना श्रीमाली
समाज का एक हिस्सा कह ले या इसे ही हम समाज कह ले, ज्यादा अंतर नही होगा। हमने बचपन से पढ़ा की हम पुरुष प्रधान देश में रहते है जहाँ पुरुष को एक सर्वव्यापी सर्वोच्च दर्जा प्रदान किया गया। पर क्या सच में या तो स्त्री देवी है या स्त्री लाचार है हम समाज के ताने- बाने में गहराई में जाऐ तो हर स्त्री के देवी होने में एक पुरुष और एक और स्त्री जो चाहे माता-पिता, सास-ससुर, पति-दोस्त कोई भी हो, उन्हीं की तस्वीर या शख्सियत की मौजूदगी दिखाई देगी। या स्त्री के लाचार होने में भी यही किरदार हमें नजर आऐगे।

स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है यही सुना था और समाज में देखा भी, बहू जिसे बेटी ना बना पाई या बेटी जिसे सदैव पराया समझा। ना उसके मौलिक अधिकार के लिऐ बोली ना कभी उसकी आर्थिक स्वतंत्रता के लिऐ। हाँ जी भर के दहेज लिया और दिया जरूर गया। हर स्त्री से यही सवाल की जब भ्रूण का परिक्षण करवाया गया, कितनी बार सास या माँ साथ नही थी। या एक बेटी होने के बाद कितनी बार खुद ने बेटा नही चाहा और उसी चाह में कोख को टटोला गया अपने मन का बीज ना रोपने पर उसे एक जंगली खरपतवार की तरह फैक दिया निकाल कर। क्योंकि उसे पुरुष को जन्म देना था, अपने पुरुष को खुश करने के लिऐ।

विज्ञान की छात्रा होकर अपनी सहेलियों को ना समझा पायी की जो होना था वो फर्टिलाइजेशन के दौरान हो चुका, अब इन देशी या विदेशी दवाओं और बाबाओ के लाख टोटको से कुछ नही बदलना क्योंकि अगर बदलना होता तो शायद आज हमारा अस्तित्व ही ना मौजूद होता इस समाज में। हम स्त्री कभी शिक्षा के नाम पर लड़ नही पाई ना कभी दहेज के विरोध में हाँ पर हम सम्पत्ति के लिऐ जरूर अब लड़ती दिखाई दे जाऐगी हर तीसरे घर में । यहाँ भी उसे लड़ना पुरुष से है अपने आर्थिक हक के लिऐ और फिर वही हक लेकर अपने पति नामक पुरुष को सौप देना है।

स्त्री को सिवाय एक वंश वृद्धि के साधन के कुछ समझा तो उपभोग की वस्तु, इसे समझाने वाली भी कई स्त्री ही है जिसने देह को उघाड़कर हमारी देह को आकर्षण का विषय बनाकर रख दिया। पतली, छरहरी, गौरवर्ण है तो आप दुनिया की हर बुलंदी छू सकती है और गैहूए, सावली वर्ण लड़की उसका क्या? आप आकर्षक दिखकर पुरुष कॅ आकर्षित करना चाहती है, जो देखेगा सिवाय कामना और इस्तेमाल के कुछ सोच समझ ही नही पाऐगा। फिर क्यों दोष दे हम रोज होते ब्लात्कारो का, स्त्री को बाजारवाद बनाकर परोसा किसने?

बाजारवाद में स्त्री, पुरुष की सोच में स्त्री, 100%में से आज भी केवल 30% स्त्री आर्थिक रूप से और मानसिक रूप से अपने पैरो पर खड़ी है। हमारे देश में आज भी स्त्री घर की देहरी से स्कूल तक शादी से पहले और शादी के बाद ससुराल तक सिमीत है। समाज सदैव बदलता है और बदलना चाहिए, पर स्त्री तब से लेकर आज तक भी उपभोग और केवल उपभोग की वस्तु बनती आई, पहले लाचारी से और अब स्वतंत्रता के नाम पर। हमें बराबरी करनी होती है सदैव पुरुष से क्यों? जब तक स्त्री अपने ऊपर से पुरुष प्रधान को नही उतारती तब तक स्त्री सदैव एक उपभोग की वस्तु की तरह ही इस्तेमाल होगी चाहे घर हो या बाहर।
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