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सपनों को बनाएं हकीकत

Published: Jul 08, 2016 02:22:00 pm

बराबरी का हक पाने के लिए महिलाओं को भरनी है उड़ान

Brother-in-law's sister the rape

Brother-in-law’s sister the rape

– इरा टाक (लेखिका व फिल्मकार)

स्त्री के दु:ख, पीड़ा, मजबूरी व त्याग से जुड़ी सैंकड़ों कहानियां पढऩे सुनने में आती है। लेकिन हम देख रहे हैं कि चाहे कोई भी दौर रहा हो स्त्री को सदैव शोषित के रूप में ही दिखाया गया। उसकी समस्याओं पर चर्चाएं तो बहुत हुईं लेकिन समाधान की दिशा में कम। नारी समानता का भले ही बिगुल बज रहा हो पर स्त्री को आज भी समाज में दूसरा दर्जा हासिल हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। सवाल यह है कि यह दर्जा किसने दिया? पुरुषों ने या खुद हम स्त्रियों ने, जिन्होंने इसे अपना नसीब मान स्वीकार कर लिया।

स्त्री को बचपन से ही पुरुष के बराबर आज़ादी से पनपने का अवसर दिया नहीं जाता। एक पौधे को अगर गमले में लगा कर रखा जाये तो वो जंगल में हवा पानी पाते हुए पौधे के मुकाबले कमज़ोर तो होगा ही! ऐसा नहीं है कि लोगों की मानसिकता में सुधार नहीं हुआ पर ऐसे लोग शायद अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।

वेद-पुराणों में स्त्री को देवी का ऊंचा दर्जा दिया पर असलियत में उन्हें बराबरी का कभी नहीं माना गया। त्याग को महिमामंडित कर स्त्री को अपने तौर तरीके, सपने इच्छाएं सब छोड़ त्याग की जीती जागती मूर्ति बनने पर मजबूर किया
गया। इस तरह का त्याग कर महान बनने का ख्याल कभी पुरुषों के मन में क्यों नहीं आया? आज भी कन्यादान की कुरीति चल रही है। कन्या कोई वस्तु है जिसे दान दिया जाये ? पांडवों ने द्रौपदी को जुए में वस्तु की तरह दांव पर लगाया था,
कन्यादान भी कुछ उसी तरह की परंपरा मालूम होती है।

कमजोरी हम महिलाओं की भी कम नहीं। किसी सफल और स्वाभिमानी स्त्री से प्रेरणा लेने की बजाय अन्य स्त्रियां उसमें कमियां निकालने में ज्यादा इच्छुक दिखती हैं। अधिकांश सासों का ध्यान बहू की काबिलियत से ज्यादा उसके कपड़ों और रहन सहन पर रहता है। ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भी भयावह है। स्त्रियों का सुहाग चिन्ह धारण करना, पति का नाम अपने नाम के साथ लगा लेना एक तरह की मानसिक गुलामी ही तो है जो शायद सदियों से चलते हुए अब स्त्री के जीन्स (गुणसूत्रों) में शामिल हो गयी है। अगर इसे प्रेम और समर्पण का कुतर्क दे कर सही ठहराया जाये तो इस तरह का प्रेम और समर्पण तो पुरुषों से भी अपेक्षित है! केवल स्त्रियों पर ही शादीशुदा होने पर ऐसा बिल्ला क्यों चस्पा किया जाए?

अक्सर स्त्रियां पति के या परिवार का सहयोग न मिलने का हवाला दे कर अपनी पढाई, नौकरी या कुछ अलग करने के सपने छोड़ देती हैं। अपने सपनों को जिंदा रखने और उन्हें हकीकत बनाने का साहस तो खुद स्त्री को ही जुटाना होगा भले ही कोई उसका साथ दे या न दे! जब स्त्री की पहचान उसके पिता,पति या काबिल औलाद के नाम से न हो कर खुद अपने नाम से होती है उसका सुख अवर्णनीय होता है। और इस सुख को पाने का हक हर स्त्री को होना चाहिए।
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