कानपुर देहात. स्वतंत्रता की जंग में जाने कितने देश के वीर जवान शहीद हो गये। कई राजाओं की विरासत हथिया ली गयी। खून की नदिया बह गयी, लेकिन उस समय काल में भी ऐसे राजा थे, जिनकी हवेलियों की तरफ अगर दुश्मन की आंख भी उठे तो तोंपो से सलामी हुआ करती थी।
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ऐसा है राजा विशम्भर सिंह का इतिहास। जिसका बखान आज भी जनपद के खानपुर डिलवल गांव स्थित उनकी दरकती हवेली करती है।
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राजा भारत सिंह के दो पुत्र विशम्भर सिंह व रामपाल सिंह थे जिसमे विशम्भर सिंह सरल स्वभाव के थे, लेकिन रामपाल उग्र विचारों वाले राजा थे। उस समय राजाओं को बरना जी कहा करते थे।
वर्तमान मे जिसका बिगड़ा हुआ रूप बना जी है।
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विशम्भर सिंह ने यह हवेली 1930 मे निर्माणाधीन की थी, जिसके बाद उन्होंने हवेली का काम 1940 में पूर्ण होने पर हवेली के सबसे ऊपर लिखवाया था।
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हवेली का ऊंचा बना मुख्य द्वार जहां से राजा विशम्भर सिंह हाथी पर बैठकर निकलते थे इस हवेली पर 365 दिन रात में रौशनी जगमगाती थी जिसकी रोशनी वहां से दूर तक जाती थी।
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विशम्भर सिंह 1951 मे विशम्भर सिंह को बीमारी ने घेर लिया और वह चलने फिरने को मोहताज़ हो गये। फिर 1952 मे उनका देहांत हो गया।
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कहते है उनके यहाँ पले 10 हाथियों को सजाया गया, जिन्होंने दो पैर से खड़े होकर उनको अंतिम विदाई दी। उनका अंतिम संस्कार उनके ही बाग खानपुर में करके स्मारक बनवा दी गई।