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1872 में पहली देवी प्रतिमा विराजी
जबलपुर में मां दुर्गा की मिट्टी से बनी प्रतिमा सर्वप्रथम 1872 में बृजेश्वरदत्त के निवास पर स्थापित की गई। इसके तीन साल बाद अंबिकाचरण बैनर्जी के घर पर मूर्ति की स्थापना हुई, जो 1930 तक चलती रही। इसके बाद यह उत्सव बंगाली क्लब सिविक सेंटर में मनाया जाने लगा। 1878 में कलमान सोनी ने सुनरहाई में बुंदेली दुर्गा प्रतिमा स्थापित की। यहां के निवासी देवीप्रसाद चौधरी, उमाराव प्रसाद आदि ने इस प्रतिमा को स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित किया।
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150 सालों से बुंदेली शैली की प्रतिमा स्थापित
बुन्देली शैली में निर्मित सुनरहाई और नुनहाई व गुड़हाई की प्रतिमा के मूर्तिकार मिन्नीप्रसाद प्रजापति रहे। इनके परिवार की चौथी पीढ़ी को भी इस तरह की प्रतिमाओं के निर्माण में महारत हासिल है। बुन्देली शैली की भव्य प्रतिमा को पुरवा झंडा चौक में करीब सौ वर्ष तक स्थापित किया गया, बाद में वहां संगमरमरी प्रतिमा की स्थापना की गई। गढ़ा स्थित छोटी बजरिया में भी करीब 125 साल से दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की जा रही है।
गौरवशाली है इतिहास
गढ़ाफाटक स्थित महाकाली की प्रतिमा स्थापना का गौरवशाली और साहसपूर्ण इतिहास है। इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेजी शासन के समय महाकाली के चल समारोह में निकलते ही तरह-तरह के विवाद खड़े किए जाते रहे लेकिन उस समय भी युवाओं के साहस और उत्साह के कारण नवरात्रि पर्व उत्साह से मनाया जाता रहा। वर्तमान में जबलपुर का दशहरा न केवल मध्य भारत बल्कि पूरे देश में अपनी अलग पहचान रखता है।
डेढ़ हजार से अधिक प्रतिमाओं की स्थापना
शहर के अलावा पूरे संभाग के गांव-गांव में नवरात्रि की धूमधाम देखते ही बनती है। इस समय जबलपुर शहर में ही डेढ़ हजार से अधिक दुर्गा प्रतिमाओं की स्थापना होती है। पर्व के दौरान रामलीला का मंचन, देवी जागरण की धूमधाम से देवी की आराधना दोगुनी हो जाती है। जैसे-जैसे दुर्गा प्रतिमाओं की संख्या बढ़ी तो दशहरा जुलूसों की संख्या भी बढऩे लगी। मुख्य दशहरा चल समारोह और पंजाबी दशहरा के भव्य आयोजन के अलावा करीब 9 दशहरा चल समारोह निकलते हैं।