ये है कहानी
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में एत्मादपुर तहसील के धीरपुरा नामक गांव के दो भाइयों ने प्रतिज्ञा की कि वे 26 जनवरी 1931 को आगरा के लाल किले पर तिरंगा फहरायेंगे। इस कार्य मे अत्यधिक जोखिम व प्राणों को खतरा था, क्योंकि किले पर अंग्रेजी फौजों का कब्जा था। महाराज सिंह व उसके भाई सोबरन सिंह ने चुंगी कचहरी के चपरासी को पटा कर उससे पियोन बुक ले ली और डाक देने के बहाने दिल्ली दरवाजे से किले में प्रवेश कर गए।
स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में एत्मादपुर तहसील के धीरपुरा नामक गांव के दो भाइयों ने प्रतिज्ञा की कि वे 26 जनवरी 1931 को आगरा के लाल किले पर तिरंगा फहरायेंगे। इस कार्य मे अत्यधिक जोखिम व प्राणों को खतरा था, क्योंकि किले पर अंग्रेजी फौजों का कब्जा था। महाराज सिंह व उसके भाई सोबरन सिंह ने चुंगी कचहरी के चपरासी को पटा कर उससे पियोन बुक ले ली और डाक देने के बहाने दिल्ली दरवाजे से किले में प्रवेश कर गए।
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किले की प्राचीर से लहराया तिरंगा
महाराज सिंह के पेट पर कमीज के अंदर तिरंगा लिपटा था। अंदर जाकर वह लघुशंका की मुद्रा बनाकर दीवार की ओर चला गया और डण्डे में झंडा पिरोकर चुपचाप किले की की प्राचीर पर लगा दिया। इतना काम करने के बाद दोनों भाई बाहर निकल आये। अगले दिन सुबह लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहरता फहरता देखकर शहर में सनसनी फैल गई। घटना की खबर शासन में शीर्षस्थ स्तर पर पहुंच गई।
किले की प्राचीर से लहराया तिरंगा
महाराज सिंह के पेट पर कमीज के अंदर तिरंगा लिपटा था। अंदर जाकर वह लघुशंका की मुद्रा बनाकर दीवार की ओर चला गया और डण्डे में झंडा पिरोकर चुपचाप किले की की प्राचीर पर लगा दिया। इतना काम करने के बाद दोनों भाई बाहर निकल आये। अगले दिन सुबह लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहरता फहरता देखकर शहर में सनसनी फैल गई। घटना की खबर शासन में शीर्षस्थ स्तर पर पहुंच गई।