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मिर्जा गालिब को समझना है, तो पढ़ें ये खबर, किस तरह जिंदगी के हर लम्हे को शेरों से बयां किया

पुस्तकं उर्दू शायरी दीवाने गालिब लगभग 2200 शेर

आगराDec 27, 2017 / 02:38 pm

धीरेंद्र यादव

Mirza Ghalib

Mirza Ghalib

आगरा। मशहूर शायर मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को काला महल पीपल मंडी आगरा में हुआ था। इश्क की इबादत हो या खुदा से शिकायत, अपनों से नफरत हो या दुश्मनों से मोहब्बत, हर शेर और शायरी में कुछ अपना सा दर्द छलक जाता है। गालिब जीवन के हर लम्हे को शेरों में पिरोते चले गए।
जानिए गालिब के बारे में

नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खां
उपनाम असद 1816 तक, फिर गालिब
जम्न 27 दिसंबर 1779 काला महल पीपल मंडी आगरा
मृत्यु 15 फरवरी 1869 दिल्ली
मां का नाम इज्जतुन्निसा बेगम
पिता का नाम अब्दुल्लाह बेग खां
पत्नी का नाम उमराव बेगम
पुस्तकं उर्दू शायरी दीवाने गालिब लगभग 2200 शेर
पुस्तें उर्दू नस्त्र उर्दू ए मुअल्ला, मकातीबे गालिब, नादिराते गालिब, गालिब की नादिर तहरीरें, नुकाते गालिब, कादिर नामा, नामा ए गालिब
पुस्तकें फारसी कुल्लियाते नज्मे फारसी, सबदे चीन,

शायरी शुरू की असद तखल्लुस उपनाम रखा

हमारे शेर हैं अब सिर्फ दिल्लगी के असद
खुला कि फायदा अर्ज हुनर में खाक नहीं।

1809 में मकतबी शिक्षा पूरी हुई।
1810 से 1812 अब्दुल समद नामक अरबी, फारसी के विद्यान के घर पर ही शिक्षा दीक्षा पूर्ण की। फारसी भाषा और शायरी की बारीकियां सीखीं।
1813 आगरा से दिल्ली को प्रस्थान और लोहारू जागीर के नवाब अहमद बख्श खां के छोटे भाई इाहाली बख्श खां मारूप की बेटी उमाराव बेगम के साथ निकाह हुआ। कस्बा नाकीा्रय उनरि ससूराल थी। गालिब कहते हैं
खुशी तो है आने की बरसता की
पिएं बादा ए नाब, और आम खायें
सरे आगाजे मौसम के अंधे हैं हम
कि दिल्ली को छोड़ें लोहारू को जायें
1816 उपनाम गालिब का वकायादा इस्तेमाल शुरू।
1823 फरवरी महीने में कलकत्ता पहुंचे, जहां उन्हें अपनी पेंशन का दावा पेश करना था। उस समय ब्रिटिश केन्द्रीय सरकार का कार्यालय वहीं था।
1827 फारसी शायरी का बकायदा आगाज।
1829 गालिब का दावा खारिज हो गया। उन्होंने गर्वनर जनरल की कौंसिल के निर्णय का इंतजार नहीं किया और इसी साल नवंबर में दिल्ली चले आये यह कहते हुए
पिला दे ओके से साकी, जो मुझ से नफरत है
प्याला गर नहीं देता, ना दे, शराब तो दे।

1840 गालिक की माता जी का इंतकाल हुआ
जाते हुए कहते हो कयामत को मिलेंगे
क्या खूब कयामत का है बोया कोई दिन और
1840 में दिल्ली कॉलेज में नौकरी की पेशकश, गालिब ने मना किया
1841 उनका उर्दू दीवान पहली बार प्रकाशित हुआ, जिसमें लगभग 1100 शेर थे
गंजीना ए मआनी का तिलिस्म उसको समझिए
जो लफ्ज कि गालिब मेरे अशआर में आवे
1842 गालिब का पेंशन दावा इंग्लैंड के गृह मंत्रालय द्वारा भी रद्द कर दिया गया
नामा लिखते ही हो तो या खते हजार हैफ
रखते हो मुझ से इतनी कदूरत हजार हैफ
1844 अपनी पेंशन के संबंध में गालि ने अंतिम हार कबूल कर ली
ना गुले नग्मा हूं, ना परदा ए साज
मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज


जीवन के हर मोड़ को ऐसे ही शानदार शेरों में गालिब ने पिरो दिया।
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