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स्वामी जी महाराज ने 1861 में शुरू किया था राधास्वामी मत, द्वितीय जन्मशताब्दी एक से

locationआगराPublished: Aug 30, 2018 06:38:38 pm

Submitted by:

Bhanu Pratap

परमपुरुष पूरनधनी हजूर स्वामीजी महाराज के अवतरण के 200 वर्ष पूर्ण होने पर राधास्वामी सतसंग, हजूरी भवन, पीपल मंडी आगरा द्वारा 1 सितम्बर से 5 सितम्बर 2018 तक महोत्सव होगा।

Swamiji maharaj

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आगरा। कुल मालिक राधास्वामी दयाल के अवतार, राधास्वामी मत के संस्थापक परमपुरुष पूरनधनी हजूर स्वामीजी महाराज परमपिता दातादयाल के इस सृष्टि में अवतरण के 200 वर्ष पूर्ण होने पर राधास्वामी सतसंग. हजूरी भवन, पीपल मंडी आगरा द्वारा 1 सितम्बर से 5 सितम्बर 2018 तक मनाया जाएगा। मुख्य आरती सतसंग सोमवार दिनांक 3 सितम्बर 2018 को परम पुरुष पूरनधनी हजूर महाराज की पवित्र समाध पर मनाया जाएगा। राधास्वामी मत के वर्तमान आचार्य औऱ आगरा विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर अगम प्रसाद माथुर (दादाजी महाराज) ने बताया कि समारोह में देश के विभिन्न हिस्सों और विदेशों से सतसंगी आ रहे हैं।
कौन हैं परमपुरुष पूरनधनी स्वामीजी महाराज

परमपुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज का जन्म 25 अगस्त 1818 को एक खत्री परिवार में हुआ। उनका पारिवारिक नाम सेठ शिवदयाल सिंह था। इनके पिता राय दिलवाली सिंह लेन-देन का व्यवसाय करते थे। परिवार के सभी सदस्य अत्यन्त धार्मिक एवं निष्ठावान भक्त थे। शैशव से ही गहन धार्मिकता उनका स्वभाव एवं वृत्ति थी। छह वर्ष की अल्पायु में उन्होंने योगाभ्यास शुरू कर दिया। इनका अधिकांश समय अभ्यास में व्यतीत होता था। वह स्वयं को एक छोटे कमरे में कई दिनों के लिए बन्द कर लेते और उन्हें नित्य कर्म की भी आवश्यकता अनुभव न होती थी। शीघ्र ही परम संत के रूप में उनकी ख्याति चहुँओर फैलने लगी।
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चुनौती का प्रत्युत्तर

उच्च दार्शनिकता से ओत-प्रोत आध्यात्मिक उपदेशों को एक किशोरवय संत के मुख से सुनते ही लोग आश्चर्य विस्मित और मंत्रमुग्ध हो सुनने लगते थे। शीघ्र ही साधुओं, फकीरों, जिज्ञासुओं का विशाल समूह उनके चारों ओर एकत्र होने लगा। तत्कालीन मुख्य धर्मवेत्ताओं की चुनौती का प्रत्युत्तर उन्होंने अभूतपूर्व सफलता के साथ दिया। उन्होंने न केवल आध्यात्मिक श्रेष्ठता के विषय में सभी को संतुष्ट किया बल्कि अपने नवीन उपदेशों की उपादेयता को भी समझाया।
कई भाषाओं का ज्ञान था

उन्होंने हिन्दी, उर्दू, फारसी तथा गुरूमुखी का ज्ञान प्राप्त किया। फारसी के अध्ययन में उन्होंने विशिष्टता प्राप्त की और एक पुस्तक भी लिखी। उन्होंने अरबी तथा संस्कृत का भी अध्ययन किया। उनका विवाह फरीदाबाद (हरियाणा) के राय इज्जतराय की सुपुत्री नारायणी देवी से हुआ था। स्वामीजी महाराज ने बल्लभगढ़ के ताल्लुकेदार के फारसी शिक्षक के रूप में कार्यभार संभाला। लेकिन लौकिक उपलब्धियों के प्रति अनासक्ति और आध्यात्मिक व्यग्रता के कारण यह स्थान भी त्याग दिया। अपना सम्पूर्ण समय केवल धार्मिक कार्यों में व्यतीत करने के लिये वह आगरा लौट आये।
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सुरत शब्द योग की नवीन विधि ईजाद की

परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज ने वर्ष 1861 में बसंत पंचमी के दिन आगरा स्थित पन्नी गली के अपने आवास में सुरत शब्द योग की नवीन विधि को सम्पूर्ण मानवता के हितार्थ आम सतसंग में जारी कर दिया। मात्र छह वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों पर विचार प्रकट करना शुरू कर दिया था। वे सनातन अथवा पाश्चात्य के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त थे। वास्तव में, वे स्वयं दिव्य आध्यात्मिक चेतना के पुंज और साक्षात परम पवित्र सत्य के अवतार थे। दिव्य उपलब्धि एवं आत्म साक्षात्कार के माध्यम से उन्होंने सरल सुरत शब्द योग की विधि ईजाद की। इसी विधि का अभ्यास करते हुए द्वितीय गुरू परमपुरुष पूरनधनी हजूर महाराज को स्वामीजी महाराज ने स्वयं तथा कुल मालिक के बीच विद्यमान एकता से परिचित कराया। परम धाम राधास्वामी, परम पिता राधास्वामी हैं और उनमें तथा प्रथम गुरु स्वामीजी महाराज में केाई अन्तर नहीं है, यह अनुभव करा दिया। इस अनुभव को 21 नवम्बर 1866 को स्वामीजी महाराज के परमप्रिय शिष्य उनके उत्तराधिकारी द्वितीय गुरु हजूर महाराज ने प्रकट कर दिया और प्रथम गुरु को ”हुजूर पुरनूर राधास्वामी साहेब दाता दयाल“ कहकर सम्बोधित करते हुए सम्पूर्ण संसार के लिये यह पवित्र भेद सार्वजनिक करने का अनुरोध किया। स्पष्टता एवं सहजता के कारण ही यह राधास्वामी मत भारतीय समाज में अभूतपूर्व ढंग से ग्राह्य हुआ और जनसाधारण को इसमें शांति और परम तत्व से मिलन की आशा भरी किरण दिखायी थी।
1966 में राधास्वामी सतसंग

इस प्रकार सन् 1861 ई0 में हजूर महाराज की विनय पर स्वामीजी महाराज द्वारा स्थापित आम सतसंग हजूर महाराज को ही प्राप्त आन्तरिक अनुभव के बाद वर्ष 1966 में राधास्वामी सतसंग हो गया और स्वामीजी महाराज को परम सत्ता यानी कुल मालिक राधास्वामी दयाल के रूप में, राधास्वामी मत के प्रथम और आदि गुरू के रूप में पाकर सतसंग समाज धन्य हो गया। उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी और सभी जातियों के लोग सतसंग में शामिल होने लगे। अपने पन्नी गली, आगरा स्थित आवास में उन्होंने 17 वर्षों तक निरन्तर सतसंग की अध्यक्षता की।
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आध्यात्मिक पुनर्जागरण के प्रथम सूत्रधार

स्वामीजी महाराज ने अपनी रचनाओं में गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं को अपनाया है। रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों पर तीक्ष्ण एवं स्पष्ट प्रहार किये गए हैं। उनके ग्रन्थों में सबल लेखनी और प्रबल तर्कशक्ति का सहज परिचय मिलता है। उनके काव्य ग्रन्थ ‘सारबचन राधास्वामी छन्द-बन्द’ तथा गद्य कृति सारबचन बार्तिक है। सतसंगियों के लिए उनकी रचनाएं कुल मालिक का आदेश हैं। स्वामीजी महाराज का 19वीं शताब्दी के धार्मिक प्रर्वतकों में अग्रणी स्थान है क्योंकि प्रेम और भक्ति का उपदेश देने की शुरुआत उन्होंने की। स्वामीजी महाराज सुरत (आत्मा) की मुक्ति के प्रबल समर्थक थे और आध्यात्मिक जीवन के रहस्यों में निरन्तर निमग्न रहते थे। सही मायनों में वह आध्यात्मिक पुनर्जागरण के प्रथम सूत्रधार थे।
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स्वामी बाग में समाध

आध्यात्मिक दायित्वों में अतिव्यस्तता तथा विश्राम व पौष्टिक आहारों के प्रति अरुचि ने उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। उन्होंने 15 जून 1878 को देह त्याग दी। वर्तमान में उनकी समाध राधास्वामी बाग (स्वामीबाग), आगरा में स्थित है, जिसे विशिष्ट पच्चीकारी के लिए जाना जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में सत्संगी तथा पर्यटक अवलोकन व दर्शन के लिए पहुँच रहे हैं।
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