नदियों के ‘सफाईकर्मी’ कछुए पूरी दुनिया में संकट में हैं। दुर्लभ बटागुर कछुगा या साल कछुए का अस्तित्व अब सिर्फ चंबल में ही बचा है। बटागुर दिखने में सामान्य कछुओं जैसे ही होते हैं। इनका आकार और वजन सामान्य से कहीं अधिक होता है। इस प्रजाति को बचाने के लिए चंबल में किए जा रहे प्रयास रंग लाने लगे हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश तीन राज्यों में फैले राष्ट्रीय चम्बल अभयारण्य में नदी किनारे अनेक जगह हैचरी बनाकर इस प्रजाति को संरक्षित किया जा रहा है। पिछले एक साल के नतीजे उत्साहित कर रहे हैं। यहां छह हजार अंडे तैयार किए गए हैं।
सर्वाधिक स्वच्छ नदियों में शुमार
चम्बल नदी राजस्थान की कामधेनु के रूप में प्रसिद्ध है लेकिन यह यमुना की सहायक नदी है। यह राजस्थान और मध्य प्रदेश के बीच बहती हुई सीमा बनाती है। यह देश की सर्वाधिक स्वच्छ नदियों में शुमार होने से प्रदूषण मुक्त मानी जाती है। कुछ समय पर कोटा के कारखानों से यह प्रदूषित होने लगी थी। बाद में उनका ट्रीटेड जल ही नदी में छोडऩे और प्राकृतिक स्वच्छता दूत कछुओं के कारण यह स्वच्छ रहने लगी। यही वजह है कि नदी मीठे पानी के कछुए, गंगा डॉल्फिन और भारतीय स्किमर्स की अद्भुत प्रजातियों की मेजबानी करती है। इनके अलावा इनमें घडिय़ाल और मगरमच्छ भी हैं।
चम्बल नदी राजस्थान की कामधेनु के रूप में प्रसिद्ध है लेकिन यह यमुना की सहायक नदी है। यह राजस्थान और मध्य प्रदेश के बीच बहती हुई सीमा बनाती है। यह देश की सर्वाधिक स्वच्छ नदियों में शुमार होने से प्रदूषण मुक्त मानी जाती है। कुछ समय पर कोटा के कारखानों से यह प्रदूषित होने लगी थी। बाद में उनका ट्रीटेड जल ही नदी में छोडऩे और प्राकृतिक स्वच्छता दूत कछुओं के कारण यह स्वच्छ रहने लगी। यही वजह है कि नदी मीठे पानी के कछुए, गंगा डॉल्फिन और भारतीय स्किमर्स की अद्भुत प्रजातियों की मेजबानी करती है। इनके अलावा इनमें घडिय़ाल और मगरमच्छ भी हैं।
कैसे हो रहा संरक्षण
बटागुर मादा मार्च में अंडे देती है। मई-जून में अंडों से बच्चे निकलते हैं। मादा कछुए नदी किनारे अंडे देकर उसको बालू से ढक देती हैं। अंडों से शिशु निकलने का समय विभिन्न प्रजातियों में अलग-अलग है। इसके अंडे से बच्चे निकलने का समय 55 से 120 दिन का है। अलग अलग प्रजाति में 11 से 35 तक अंडे दिए जाते हैं। यहां अंडों की हैचिंग (अंडों को सेकने की प्रक्रिया) शुरू की जाती है। हैचरियों में करीब छह हजार अंडों को एकत्रित किया गया। बच्चों के थोड़ा बड़ा होने तक देखरेख कर नदी में छोड़ दिया जाता है। इससे इनकी सर्वाइवल रेट सुधरी है। इसके लिए वन विभाग को प्रशिक्षित किया गया और आमजन के बीच जागरूकता कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
बटागुर मादा मार्च में अंडे देती है। मई-जून में अंडों से बच्चे निकलते हैं। मादा कछुए नदी किनारे अंडे देकर उसको बालू से ढक देती हैं। अंडों से शिशु निकलने का समय विभिन्न प्रजातियों में अलग-अलग है। इसके अंडे से बच्चे निकलने का समय 55 से 120 दिन का है। अलग अलग प्रजाति में 11 से 35 तक अंडे दिए जाते हैं। यहां अंडों की हैचिंग (अंडों को सेकने की प्रक्रिया) शुरू की जाती है। हैचरियों में करीब छह हजार अंडों को एकत्रित किया गया। बच्चों के थोड़ा बड़ा होने तक देखरेख कर नदी में छोड़ दिया जाता है। इससे इनकी सर्वाइवल रेट सुधरी है। इसके लिए वन विभाग को प्रशिक्षित किया गया और आमजन के बीच जागरूकता कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
हैचरी को खतरा
कछुओं के अंडों को अभयारण्य के सियार, श्वान या दूसरे जानवर नुकसान पहुंचाते हैं। इसके लिए नेस्टिंग की जाती है। इसके अलावा नदी में अवैध खनन, बढ़ता प्रदूषण, नदी किनारे बुवाई-जुताई, फसलों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों का उपयोग आदि बड़ा खतरा है। दिवाली के आसपास तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका, घर के वास्तुदोष दूर करने, धन और समृद्धि की कामना आदि के लिए कछुओं की तस्?करी से भी इनका जीवन संकट में है। कई जगह दवा के नाम पर इसका भक्षण किया जाता है। मछली पकडऩे वालों के जाल में फंसने से भी इनकी मौत हो जाती है।
कछुओं के अंडों को अभयारण्य के सियार, श्वान या दूसरे जानवर नुकसान पहुंचाते हैं। इसके लिए नेस्टिंग की जाती है। इसके अलावा नदी में अवैध खनन, बढ़ता प्रदूषण, नदी किनारे बुवाई-जुताई, फसलों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों का उपयोग आदि बड़ा खतरा है। दिवाली के आसपास तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका, घर के वास्तुदोष दूर करने, धन और समृद्धि की कामना आदि के लिए कछुओं की तस्?करी से भी इनका जीवन संकट में है। कई जगह दवा के नाम पर इसका भक्षण किया जाता है। मछली पकडऩे वालों के जाल में फंसने से भी इनकी मौत हो जाती है।
चंबल में 9 प्रजातियां विश्व में कछुओं की 260 प्रजातियों में से भारत में सिर्फ 29 प्रजातियां हैं। चम्बल में नौ प्रजातियां मौजूद हैं। इनमें से 4 प्रजातियां नरम कवच और 5 कठोर कवच वाले कछुओं की हैं। यहां निल्सोनिया गेंजेटिका, निल्सोनिया हुरम, चित्रा इंडिका, लिसेमिस पंक्टाटा, बटागुर कछुगा, बटागुर ढोंगोका, हार्देला थुरजी, पेंग्शुरा टेंटोरिया, पेंग्शुरा टेक्टा प्रजातियां मौजूद हैं। बटागुर कछुगा और डोंगोका अति संकटग्रस्त एवं संकटग्रस्त श्रेणी में शामिल हैं।
रखना-बेचना अपराध
रखना-बेचना अपराध
तेजी से खत्म हो रहे कछुओं की कई प्रजातियों को संरक्षण की रेड लिस्ट व वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 की सूची में शामिल किया है। इसके तहत भारतीय जीव जंतु की तस्करी और रखना अपराध है। खरीद-फरोख्त भी नहीं की जा सकती। चम्बल क्षेत्र हमेशा तस्करों के निशाने पर रहा है।
चंबल को साफ और शुद्ध करने के लिए कछुओं को नदी में छोड़ा गया। इसने पानी का दूषित होने से बचाया। बटागुर कछुगा कछुओं की अतिदुर्लभ और लुप्त होती प्रजाति में एक है। अब यह सिर्फ चंबल में ही मौजूद है। इसके अंडों को तकनीकी रूप से सुरक्षित रखते हुए हैचिंग शुरू की गई। इनकी अच्?छी तादाद बड़ी है।
अनिल कुमार यादव, मंडल वन संरक्षक, सवाईमाधोपुर