मुख्य द्वार मुगलकालीन समतुल्यभारतीय हिन्दू किलों की तरह प्रतीत होता है। वहीं द्वार पर द्वारपालों के लिए प्रकोष्ट बने हैं। इस द्वार के उपर पंचखंडा महल जो दरबार हाल के लिए बनाया गया था। धौलपुर के लाल पत्थर से बने किले में खम्भों पर नक्काशी शहतीर डालकर पट्टियों से छत बनाई गई है। किले की शिल्पकला देखते ही बनती है। चौक में चौकोर बावड़ी है। जिसमें आज भी पानी भरा हुआ है। इस चौक से तीन हवेली जुड़ी है, जो रनिवास और रहवास के लिए काम में लाई जाती थी। हवेली के अन्दर अनाज के लिए पत्थर की कोठी बनी हुई है। किले की चारदीवारी 20 फुट चौड़ी हैं जिस पर वाहन भी आसानी से चल सकते है। चारों और गुम्बज है।
किले के पश्चिम में अर्ध कलाकार एक लम्बा चौड़ा खार है, जिसे उतर पूर्व की ओर बांध की तरह बांधा है। इसमें पानी भरा रहता था। पूर्व की ओर भी एक तालाब है। दक्षिण का भाग खुला है।
क्या इतिहास संजोए है सुआ का किला … किवदंती है की देवा उर्फ देवहंस बाड़ी के ऐतिहासिक बारह भाई मेले में बाबू महाराज के भजन गा रहा था और लोगों की भीड़ उसे चारों और से घेरे हुई थी तभी धौलपुर के महाराजा राणा भगवंत सिंह अपनी रानी के साथ हाथी पर सवार होकर मेले में निकले। लेकिन लोग उसके भजनों में इतने मंत्रमुग्ध थे की राजा की तरफ किसी ने नहीं देखा। ऐसे में राजा और रानी भी वहां रुक गए। जब उन्होंने भजनों को सुना तो वे भी सम्मोहित हो गए। इसके बाद देवा उर्फ देवहंस को धौलपुर दरबार में बुलाया गया। वहीं से देवा का सेना के प्रति मनोबल बढ़ाओ और वह कुछ ही समय में धौलपुर की फौज का सर्वोच्च सेनापति बन गया और सरमथुरा की झिरी में करौली राजा से हुए युद्ध के बाद धौलपुर राजा ने उसे सूबेदार की उपाधि दे दी और उसे पूरे डांग क्षेत्र का अधिकार दे दिया गया। इसके बाद डांग में ग्रामीणों और गुर्जरों की सहायता से देवहंश ने यह ऐतिहासिक किला बनाया, जो आज देवहंश का किला या सुआ के किले के नाम से क्षेत्र में विख्यात है। लेकिन दुर्भाग्य है की इसका इतिहास धौलपुर तक ही सिमिट कर रह गया है।