Holi : ना हुरयारों की टोली, ना पहले सी हंसी-ठिठोली
यादों के झरोखे से परम्पराएं : इतिहास के पन्नों में दफन हो गई धौलपुर की रियासतकालीन होली

धौलपुर.
रियासतकाल में होलिका अष्टक से शुरू होकर रंग पंचमी तक चलने वाला होली का त्योहार आज केवल एक दिन में सिमट कर रह गया है। त्योहार में आमजन और राज दरबार लोगों का उल्लास बढ़ाने के लिए अपना-अपना योगदान देते थे। कालांतर में विभिन्न त्योहार व सांस्कृतिक परम्पराएं सामाजिक समरसता में फैले प्रदूषण की भेंट चढ़ गए।
हंसी-ठिठोली का यह पर्व भी अब केवल घरों की चारदीवारी एवं निजी सामाजिक रिश्तों तक ही सिमट कर रह गया है। धौलपुर शहर में अब पहले की तरह ना तो होली पर फाग गाते हुए हुरयारों की टोली नजर आती है और ना ही सार्वजनिक स्थलोंपर होली खेलते समूह।
पहाडिय़ा पर होता था कंस दहन
रियासत काल में आज के पुराने शहर स्थित कंस के टीले पर (वर्तमान में कंस पहाडिय़ा) पूरे शहर का होली का डांडा रोपा जाता था। यहीं पर सभी लोग होली की पूजा-अर्चना करते थे और मुहूर्त के अनुरूप होलिका दहन होता था, उसके बाद उसमें से अग्नि लाकर अपने-अपने घरों पर पूजा कर सजाई गई होली जलाई जाती थी। वर्तमान में कंस पहाडिय़ा का अब अस्तित्व ही समाप्त हो गया है और वहां दूर-दूर तक केवल मकान ही मकान दिखाई देते हैं।
होलिका दहन के लिए बनती थी गूलरी
शहर के हर घर में होलिका दहन के लिए महिलाएं व बालिकाएं गाय-भैंस के गोबर से चांद, सूरज, तलवार, बम, ढाल आदि आकृतियों की गूलरी बनाती थी। सनातन परम्परा के अनुसार इनकी पूजाकर होलिका में जलाया जाता था।
कई जगह होती थी सामूहिक होलीहोलिका दहन के अगले दिन धुलंडी को प्रेम व सौहाद्र्र के साथ होली खेलते थे।
रंगों की होली भाईदूज को खेली जाती थी। शहर में लाल बाजार चौराहे पर राजाखेड़ा के पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह और पुराने शहर में फूटा दरवाजा चौक की होली अब तक चर्चित है। इन स्थानों के अलावा भी अनेक स्थानों पर सामूहिक रूप से रंगों के भरे ड्रम रखे होते थे, जिनसे हर राहगीर को रंग में सराबोर कर दिया जाता था भले ही वो अनजान हो, लेकिन सामाजिक समरसता ऐसी थी कि वह राहगीर इसे अपना सम्मान समझता था।
रियासत के खर्चे पर होता था कंस दहन
1949 से पूर्व शहर में होली के ठीक बाद कंस का दहन होता और मेला लगा करता था। रियासत काल में पुराना शहर स्थित गंज में वर्तमान में फूटा दरवाजा चौक में कंस का करीब 25 फीट ऊंचा पुतला बनाया जाता था। जिसे धौलपुर रियासत अपने सरकारी बैंड व सेना की टुकड़ी और तोप का दल गंज के लिए फाग गाते हुए इसे कंस के टीले पर ले जाता था। जहां पुतले को तोपों की सलामी देकर उसका दहन किया जाता था।
रंग पंचमी पर निकलती थी कृष्ण-दाऊजी की सवारी
शहर में रंग पंचमी के दिन कृष्ण व दाऊ की झांकी बग्गी में पूरे शहर का भ्रमण करती थी। इस दौरान शहर बाजारों में उमड़ पड़ता था और साक्षात भगवान कृष्ण व बलदाऊ को विराजा मान उनसे फूल-गुलाल व अबीर से होली खेलता था। रियासत काल के बाद यह परम्पराएं तो विलुप्त हो गई, लेकिन बाद में शहर के हर मोहल्ले के युवाओं की टोली पूरी मस्ती में डूबी हुई एक-दूसरे पर रंग फेंकती हुई रास्ते में घर-घर रुक कर मिठाई आदि का आनन्द लेते हुए एक से दूसरे मोहल्ले को जाते थे।
चंदे के लिए आंकड़े से उतारते थे टोपी
सामूहिक होली कार्यक्रमों के लिए अजीब तरीके से धन संग्रह किया जाता था। जिसमें एक मजबूत धागे में मछली पकडऩे का आंकड़ा बांध लेतेे, और छतों पर बैठ उस आंकड़े से राहगीरों की टोपियों व पगडिय़ों को खींच लिया करते थे। जिसे होली के लिए पैसे लेकर रंग में सराबोर कर तिलक लगा सम्मान के साथ विदा करते थे। लेकिन समय के साथ लोगों की सोच, मानसिकता आदि भी बदल गए हैं।
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