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मैं ठहरा मजबूर…वो नोंचते रहे…अब भी नहीं आई तरस!

locationअजमेरPublished: Oct 17, 2021 01:40:19 am

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CP

अजमेर एवं पुष्कर के मध्य में रात-दिन पहरेदार के रूप में डटा

मैं ठहरा मजबूर...वो नोंचते रहे...अब भी नहीं आई तरस!

मैं ठहरा मजबूर…वो नोंचते रहे…अब भी नहीं आई तरस!

चन्द्र प्रकाश जोशी

अजमेर. मैं मजबूर हूं…इनकी हिफाजत के लिए ही मैं सीन तान कर खड़ा हूं… ताकि सर्दी ही नहीं गर्मी में लू के थपेड़ों से इन्हें बचा सकूं…। रेत की आंधियों के थपेड़े सहकर इन्हें धूल एवं रेत के गुब्बार से बचाता हूं। हद तो तब हो गई जब इन्होंने मेरी गोद में पल रहे हरे दरख्तों को नष्ट कर दिया। पेड़-पौधों से मुझे थोड़ी सी छाया नसीब होती थी उन्हें भी छीन लिया।
अजमेर एवं पुष्कर के मध्य में रात-दिन पहरेदार के रूप में डटा हुआ हूं। हर समय इनका खयाल रखने की सोचता हूं। यहां तो अगर इनके पालतू जानवर भी आ जाते हैं तो वे मेरे यहां आकर पेट भर लेते हैं। मगर इन लोगों को मुझ पर कभी तरस नहीं आया। थोड़े से लालच में इतने अंधे हो गए कि मेरा वजूद मिटाने को आमादा हो गए। कोई जेसीबी लेकर चढ़ाई कर रहा है तो कोई विस्फोट बांधकर मेरे शरीर के चिथड़े-चिथड़े उड़ाने की कोशिश कर रहा है। इन सभी तरह के हमलों के बावजूद जब तक मेरी जान में जान है मैं इनकी हिफाजत के लिए हमेशा डटा रहूंगा…मगर अब जिनके सहारे में मुझे खड़ा रहना है…अगर यह लालची लोग मेरे पैरों को भी काट देंगे तो एक दिन मेरी जर्जर काया जमीदोंज हो जाएंगी। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले पर्यावरण के रक्षक कहां गए? कहां गए जो अपने रौब से कानून का पाठ पढ़ाते हैं? कहां गए से मानवाधिकार की बातें करते हैं? सब तरफ मौन व्रत धारण किए चेहरों को आता देखता भी हूं तो दर्द से कराहने का बावजूद मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दिखाने की कोशिश करता हूं ताकि जरा सी दया उन्हें आ जाए। मगर कुछ मदद की इंतजार में अब आंखें भी पथरा गई हैं…, शरीर के एक हिस्से की धमनियां कट चुकी हैं, ना जाने कब शरीर का रक्त बहकर इस काया को निष्प्राण कर दे…। अजमेर-पुष्कर के मध्य खरेखड़ी की पहाड़ी मुझे नाम इन्होंने ही दिया मगर अब वह दिन दूर नहीं जब मुझे नाम देने वाले ही मुझे ढूंढ़ते रहें।
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