ऐसे थे ऋषि दयानंद.....जिसने दिया जहर उसे दिया जीवनदान
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अजमेर.
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती की जयंती मनाई गई। महर्षि दयानंद सरस्वती का अजमेर से गहरा नाता रहा। अजमेर को आर्यसमाज का गढ़ भी माना जाता है। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे अजमेर में रहे, उनका निर्वाण भी यहीं हुआ।
जाति व्यवस्था से नहीं थे सहमत
महर्षि दयानंद जाति व्यवस्था को एक कमी के रूप में देखते थे। 1875 में उन्होंने मुंबई के कांकड़वाड़ी में आर्य समाज की स्थापना की। निरंकार ईश्वर की उपसना और वेद पढऩा, पढ़ाना और सुनना व सुनाना सहित आर्य समाज को दस सूत्र बताए। उन्होंने शिक्षा को मूल मंत्र बताया अजमेर में शिक्षा के क्षेत्र में दयानंद संस्थाओं की विशेष पहचान है। दयानंद महाविद्यालय, डीएवी स्कूल, विरजानंद स्कूल सहित कई संस्थाएं विद्यार्थियों को शिक्षित कर रही है। आर्य संस्थाओं की ओर से घर जाकर हवन भी किए जाते है। परोपकारिणी सभा की ओर से संचालित ऋषि उद्यान में वैदिक शिक्षा भी जाती है।
रसोईये ने दिया था जहर
महर्षि दयानंद निर्वाण स्मारक के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. गोपाल बाहेती के अनुसार जोधपुर में जगन्नाथ नाम के रसोइया ने उन्हें दूध में विष मिलाकर दे दिया था। उसे पकडकऱ महर्षि दयानंद के समक्ष पेश किया गया। लेकिन महर्षि दयानंद ने उसे क्षमा कर दिया। उन्होंने उसे रुपए दिए और देश छोड़ कर जाने को कहा ताकि वह सजा से बच सके। महर्षि दयानंद दीपावली के कुछ दिन पूर्व अजमेर पहुंचे। यहां वे जयपुर रोड स्थित भिनाय कोठी में रहे। उनका काफी उपचार किया गया, लेकिन उनकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। 30 अक्टूबर 1883 को कार्तिक अमावस्या पर शाम 6 बजे उनकी मृत्यु हो गई।
...आजादी के चने ज्यादा उपयुक्त
महर्षि दयानंद सरस्वती कहते थे गुलामी के हलवे से आजादी के चने ज्यादा उपयुक्त हैं। बाल गंगाधर तिलक की ओर से दिया गया स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है मैं इसे लेकर रहूंगा में स्वराज्य शब्द महर्षि की किताब सत्यार्थ प्रकाश से ही लिया गया। यह बात तिलक ने सार्वजनिक रूप से साझा की थी।
गुरुदक्षिणा में दे दिया जीवन
महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा में फाल्गुन कृष्ण दशमी को संवत 1880 में हुआ था। उनके पिता का नाम करसन तिवाड़ी और माता अमृत बाई थी। शिवभक्त होने के कारण पिता ने उनका नाम मूलशंकर रखा था। 14 वर्ष की उम्र में वे घर छोड़ कर परमात्मा की खोज में निकल गए। उत्तर प्रदेश के चांदापुर में संत पूणानंद ने उन्हें सन्यास दिलाया और वे मूलशंकर से दयानंद सरस्वती हो गए। मथुरा में गुरु विरजानंद ने उन्हें वेद की शिक्षा ली। शिक्षा समाप्त होने पर गुरु ने गुरुदक्षिणा के तौर पर उन्हें स्वयं को समर्पित कर वेदों का प्रचार करने को कहा। तभी से वे वेदों के प्रचार में लग गए।
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