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shamefull: लो मानसून तो हुआ नदारद, अब छाया हड़ताल का मौसम

locationअजमेरPublished: Sep 28, 2018 05:37:48 pm

Submitted by:

raktim tiwari

www.patrika.com/rajasthan-news

strike in state

strike in state

रक्तिम तिवारी/अजमेर।

वाजिब हक, मुद्दों के लिए सरकारी कर्मचारी-अफसर बरसों से हड़ताल और आंदोलन करते आए हैं। अनिश्तिकालीन धरना-पैन डाउन, प्रदर्शन जैसी गांधीगिरी दफ्तरों में कई मर्तबा दिखती रही है। तभी सरकार का ध्यान कार्मिकों की समस्या पर जाता है। मानसून तो राजस्थान में कुछ दिनों का मेहमान है। पर फिलहाल प्रदेश में हड़ताल-आंदोलन का मौसम चल रहा है।
बे-बस मुसाफिर
प्रदेश के खजाने भरने वाली रोडवेज के पहिए दस दिन से थमे हुए हैं। मुसाफिर हैरान-परेशान हैं। निजी संचालक उनकी जेब खाली कराने में जुटे हैं। घाटे से जूझते रोडवेज की तरफ शायद सरकार देखना भी नहीं चाहती। मंत्री-अफसर भी कर्मचारियों से वापस काम पर लौटने की अपील को एकमात्र समाधान समझे बैठे हैं। समस्या की जड़ तक पहुंचने की कोशिश नहीं हो रही। सबसे बड़ी भर्ती संस्था राजस्थान लोक सेवा आयोग भी ठप है। दूसरे महकमों की पदोन्नति, भर्तियां करने वाले आयोग के अपने हाल खराब हैं। यहां कर्मचारियों के साथ अफसर भी सामूहिक अवकाश पर हैं। पिछले दिनों परिवहन निरीक्षक, आरएएस अफसर भी नाराजगी जता चुके हैं।
ठोका हड़ताल का खम्भ
सरकारी दफ्तरों के मंत्रालयिक कर्मचारियों ने भी हड़ताल का खम्भ ठोक रखा है। कहीं सातवें वेतनमान की विसंगतियां तो कहीं पदोन्नतियों-भर्तियों के मुद्दे हावी हैं। आंकड़ों के गणित से देखें तो करीब तीस हजार से ज्यादा सरकारी कर्मचारी-अधिकारी हड़ताल-धरने पर हैं।सरकार जनता के बीच जाकर पांच साल का हिसाब देने में व्यस्त है। पिछली सरकार को कोसते हुए प्रदेश में सडक़ों का जंजाल बिछाने, अस्पतालों में चिकित्सक-स्टाफ की भर्ती, सरकारी दफ्तरों, स्कूल-कॉलेज में पदोन्नतियां, नामांकन बढऩे, औद्योगिक निवेश, रोजगार सृजन और बेहतर जीवन स्तर के दावे किए जा रहे हैं। अगर सरकार के मुताबिक इतना सब हुआ है तो कर्मचारियों-अधिकारियों को नाराजगी समझ से परे है।
आखिर क्या कर रही सरकार…
दरअसल सरकार चुनाव वर्ष में महज आंकड़े पेश कर रही है। धरातल पर कितना कामकाज हुआ इसकी तस्वीर आंदोलन, धरने-प्रदर्शन दिखा रहे हैं। सरकारी कर्मचारी अपनी वाजिब मांगों के लिए पैन डाउन, सामूहिक अवकाश जैसे तरीके अपनाएं पर जनता हैरान-परेशान है। ना सरकार ना कोई अफसर उसकी सुनवाई को तैयार है। चुनावों की नजदीकी के साथ मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। रोडवेज के पहिए थमे रहें, जनता निजी बस, जीप-कार में जेब कटाकर सफर करे, पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम और महंगाई को सहे…यही सब नजारे तो रोज देखने को मिल रहे हैं।
जनता इंतजार में
बे-बस और निरीह जनता भी इसको समझ रही है। उसे सरकार को सूद सहित हिसाब-किताब चुकाने का मौका जल्द मिलने वाला है। लेकिन सिर्फ सरकार बदलने या उसे वापस कुर्सी पर बैठाना स्थाई समाधान नहीं है। नेताओं, मंत्रियों को मर्ज की पहचान करने की जरूरत है। जनता, सरकारी कर्मचारियों-अफसरों को मात्र दर्द निवारक दवा देने से काम नहीं चलेगा। वास्तव में सरकार और नौकरशाही समस्याओं के स्थाई समाधान से दूर रहना पसंद करते हैं। वे ज्यादातर कागजों में बाजीगरी, घोषणाओं का पिटारा खोलने में व्यस्त रहते हैं।
संभल जाओ वक्त रहते
फायदे-नुकसान की बातें भी योजनाएं और कार्यक्रम लागू होने बाद होती हैं। वक्त रहते प्रदेश की समस्या रूपी अमरबेल से निबटना जरूरी है। वरना सुशुप्त ज्वालामुखी के धधकने सी स्थिति बन सकती है। अफसरों, मंत्रियों को वातानुकूलित कमरों से फरमान जारी करने के बजाय बाहर निकलकर आंदोलन, धरने से निबटने की आवश्यकता है। तभी जनता के बीच अच्छा संदेश जा सकता है।
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