रोजाना दिन की शुरुआत भी इसी कार्य से होती है। कंधे पर थैलेसिमिक दवाओं और अन्य दस्तावेजों से भरा थैला उठाकर जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के शिशुरोग इकाई के थैलेसिमिया वार्ड में पहुंचते है। यहां भर्ती मरीजों और उनके अभिभावकों के लिए वे वाकई ईश्वर के समान ही हैं। थैलेसिमिया रोगियों को 15 दिन से एक माह के अंतराल में खून चढ़ाना होता है। उनके लिए खून की व्यवस्था पारवानी के जिम्मे है।
चिकित्सक मौजूद नहीं हो तो जांच का पर्चा भी खुद ही लिख लेते हैं। मरीजों की सेवा में इस तरह रम जाते हैं कि खाने पीने की सुध भी नहीं रहती। उसके बाद ही नौकरी पर जाते हैं और शाम को कार्यालय समय के बाद फिर असाध्य रोग थैलेसिमिया को हराने की मुहिम में लग जाते हैं।
बेटी की मौत से लिया संकल्प
दरअसल 1989 में ईश्वर की एक वर्ष की बेटी को थैलेसिमिया नहो गया था। उस समय इस बीमारी के प्रति लोगों में जागरुकता का अभाव था। प्रत्येक 15-20 दिन में खून का इंतजाम करना आसान नहीं था। विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता भी नहीं थी। यही वजह रही कि उनकी बेटी का 10 वर्ष की आयु में निधन को गया। बेटी की मौत ईश्वर के लिए थैलेसिमिया से लडऩे की प्रेरणा बनी। इस रोग से ग्रस्त बच्चों और अभिभावकों को बेहतर चिकित्सा और सुविधाएं देने की ठान ली।
दरअसल 1989 में ईश्वर की एक वर्ष की बेटी को थैलेसिमिया नहो गया था। उस समय इस बीमारी के प्रति लोगों में जागरुकता का अभाव था। प्रत्येक 15-20 दिन में खून का इंतजाम करना आसान नहीं था। विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता भी नहीं थी। यही वजह रही कि उनकी बेटी का 10 वर्ष की आयु में निधन को गया। बेटी की मौत ईश्वर के लिए थैलेसिमिया से लडऩे की प्रेरणा बनी। इस रोग से ग्रस्त बच्चों और अभिभावकों को बेहतर चिकित्सा और सुविधाएं देने की ठान ली।
39 शिविर, 10 हजार यूनिट रक्त
थैलेसिमिया ग्रस्त बच्चों के लिए मददगार बने पारवानी शुरुआत में अकेले ही जूझते रहे। बाद में अभिभावकों सहित दानदाताओं की नजर में चढ़े। वे अब तक 39 शिविर लगाकर 10 हजार से अधिक यूनिट रक्त एकत्र करवा चुके हैं। इसके अलावा लगभग 300 ऐसे लोग पंजीकृत हैं जो कभी भी खून देने के लिए तैयार रहते हैं। शहर में लगभग 80-85 लोग चिह्नित हैं जो पारवानी को थैलेसिमिया ग्रस्त बच्चों के लिए जरूरत पडऩे पर सहयोग राशि भी देते हैं। वे देश के विशेषज्ञ चिकित्सकों को समय-समय पर बुलाकर अजमेर के लगभग 196 थैलेसिमिया मरीजों की जांच कराते हैं।
थैलेसिमिया ग्रस्त बच्चों के लिए मददगार बने पारवानी शुरुआत में अकेले ही जूझते रहे। बाद में अभिभावकों सहित दानदाताओं की नजर में चढ़े। वे अब तक 39 शिविर लगाकर 10 हजार से अधिक यूनिट रक्त एकत्र करवा चुके हैं। इसके अलावा लगभग 300 ऐसे लोग पंजीकृत हैं जो कभी भी खून देने के लिए तैयार रहते हैं। शहर में लगभग 80-85 लोग चिह्नित हैं जो पारवानी को थैलेसिमिया ग्रस्त बच्चों के लिए जरूरत पडऩे पर सहयोग राशि भी देते हैं। वे देश के विशेषज्ञ चिकित्सकों को समय-समय पर बुलाकर अजमेर के लगभग 196 थैलेसिमिया मरीजों की जांच कराते हैं।
शादी से पहले कराएं टेस्ट
पारवानी का मानना है कि शादी से पूर्व जन्मपत्री मिलाना आवश्यक नहीं है अलबत्ता बच्चों में थैलेसिमिया रोग की आशंका को देखते हुए एचबीए-2 टेस्ट कराना चाहिए। भारत में लगभग 11 करोड़ लोग थैलेसिमिया रोग के संवाहक हैं। ऐसे लोगों की आपस में शादी नहीं होनी चाहिए। इसके लिए पहले ही टेस्ट करा लेने चाहिए। उनका कहना है कि देश में प्रति वर्ष लगभग एक लाख थैलेसिमिक बच्चे पैदा होते हैं। इस रोग का इलाज नहीं है । मरीज जब तक जीवित है तब तक उन्हें नियमित रूप से खून चढ़ाना पड़ता है। लिहाजा बचाव ही बेहतर उपचार है।
पारवानी का मानना है कि शादी से पूर्व जन्मपत्री मिलाना आवश्यक नहीं है अलबत्ता बच्चों में थैलेसिमिया रोग की आशंका को देखते हुए एचबीए-2 टेस्ट कराना चाहिए। भारत में लगभग 11 करोड़ लोग थैलेसिमिया रोग के संवाहक हैं। ऐसे लोगों की आपस में शादी नहीं होनी चाहिए। इसके लिए पहले ही टेस्ट करा लेने चाहिए। उनका कहना है कि देश में प्रति वर्ष लगभग एक लाख थैलेसिमिक बच्चे पैदा होते हैं। इस रोग का इलाज नहीं है । मरीज जब तक जीवित है तब तक उन्हें नियमित रूप से खून चढ़ाना पड़ता है। लिहाजा बचाव ही बेहतर उपचार है।