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राजस्थान के शिक्षा मंत्री के लिए कह दिया कुछ ऐसा, बताया इस फैसले को बेकार

locationअजमेरPublished: Sep 01, 2018 05:23:36 am

Submitted by:

raktim tiwari

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prof j s rajput

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रक्तिम तिवारी/अजमेर

केवल सरकारों के बदलने मात्र से पाठ्यक्रमों में परिवर्तन की परम्परा सही नहीं है। देश की मांग, रोजगार की उपलब्धता और विद्यार्थियों-युवाओं की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम बनने चाहिए। तभी इनसे फायदा मिल सकता है। यह बात राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के पूर्व निदेशक और यूनेस्को में भारत के प्रतिनिधि प्रो. जे. एस. राजपूत ने पत्रिका से खास बातचीत में कही।
प्रो. राजपूत ने कहा कि किताबों और पाठ्यक्रम में बदलाव सतत प्रक्रिया है। घिसे-पिटे और निरर्थक पाठ्यक्रमों, बिन्दुओं को पढ़ाया जाना विद्यार्थियों के साथ खिलवाड़ है। लेकिन सरकारों के बदलने मात्र से पाठ्य पुस्तकों-पाठ्यक्रमों को एकाएक बदलना गलत है।
कोई विशेष विचारधारा को विद्यार्थियों पर नहीं थोपा जाना चाहिए। वास्तव में पाठ्यक्रम निर्माण देश की आवश्यकता, औद्योगिक मांग से जुड़े होने चाहिए। भारत में तो पांच-सात साल में पाठ्यक्रम बदलते हैं। जबकि दुनिया के विकसित देशों दो-तीन साल बाद ही पुराने के बजाय नए पाठ्यक्रम लागू होते रहते हैं।
स्कूलों का एकीकरण गलत

राजस्थान में स्कूलों के एकीकरण को राजपूत ने गलत बताते हुए कहा कि सरकार को इसके बजाय दूसरे विकल्प ढूंढने चाहिए। इसके बजाय तीसरी-पांचवीं तक के स्कूल को ग्राम पंचायत या जिला परिषद के सहारे चलाया जा सकता है। एकीकरण किसी व्यवस्था में एकाएक एवं त्वरित सुधार का माध्यम नहीं है।
नहीं मिल सकते जोशी जैसे मंत्री…

पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी के विद्यार्थी रहे राजपूत ने बताया कि देश को उनके जैसे शिक्षक और मंत्री नहीं मिल सकते हैं। एनसीईआरटी के तत्कालीन पाठ्यक्रम में बदलाव के प्रारूप को डॉ. जोशी ने स्वयं पढकऱ मंजूरी दी थी। वे ऐसे शिक्षाविद् और मंत्री रहे हैं, जिनका जीवन अध्ययन-अध्यापन से जुड़ा हुआ है।
क्यों पढ़ाए जाएं निरर्थक कोर्स

कॉलेज और विश्वविद्यालयों में निरर्थक कोर्स और विषय पढ़ाए जाने के सवाल पर प्रो. राजपूत ने कहा कि उच्च शिक्षण संस्थानों की विद्या परिषद-प्रबंध मंडल-सीनेट को इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। घिसे-पिटे पाठ्यक्रमों के कारण ही देश में बेरोजगारी, युवाओं में हताशा बढ़ रही है। तकनीकी और कौशल विकास आधारित पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिए बगैर बेरोजगारी को खत्म करना मुश्किल है। उच्च शिक्षण संस्थानों को औपचारिक रवैये के बजाय बाजार की मांग, आर्थिक विकास से जुड़े पाठ्यक्रम बनाने पड़ेंगे।
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