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Guest interview: जरा हिंदी में बोलकर तो देखिए जनाब, फिर नहीं समझेंगे इंग्लिश को स्टेट्स सिम्बल

locationअजमेरPublished: Apr 15, 2018 08:06:37 pm

Submitted by:

raktim tiwari

अंग्रेजी रौब और गुलामी की प्रतीक है। हिंदी दुनिया की किसी भाषा से कमतर, महत्वहीन या पिछड़ी नहीं है।

speak in hindi  language

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रक्तिम तिवारी/अजमेर। हिंदी बोलने या लिखने में हीनता की बातें बेमानी है। हिंदी सूर, तुलसी और जायसी जैसे लेखकों-कवियों की लेखनी से निकली अद्भुत भाषा है, जिसका सहस्राब्दियों का इतिहास है। जबकि अंग्रेजी कृत्रिम से पैदा किया हुआ रौब और गुलामी की प्रतीक है। हिंदी दुनिया की किसी भाषा से कमतर, महत्वहीन या पिछड़ी नहीं है। यह कहना है, हिंदी के लेखक कवि और शिक्षाविद् डॉ. नवल किशोर भाभड़ा का। पत्रिका से खास मुलाकात में डॉ. भाभड़ा ने हिंदी भाषा में संवाद, लेखन और अन्य विषयों पर खुलकर विचार रखे।
पत्रिका-इंटरनेट और सोशल मीडिया के नजदीक रहने वाली युवा पीढ़ी का कहीं ना कहीं हिंदी भाषा से लगाव कम दिखता है। अंग्रेजी या हिंग्लिश उन पर ज्यादा हावी है, इसकी वजह क्या समझते हैं?
डॉ. भाभड़ा -हिंदी हजारों साल पुरानी सशक्त भाषा है। सूर, तुलसी और जायसी की भाषा किसी से कमतर नहीं हो सकती। युवा पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई-लिखाई और व्यावसायिक दृष्टिकोण से प्रभावित है। हिंदी में संवाद या लेखन में हीनता की कतई जरूरत नहीं है। अगर अंग्रेजी ही सर्वोच्च होती थी तो स्पोट्र्स, बीबीसी और अन्य चैनल को हिंदी संस्करण शुरू नहीं करने पड़ते।
पत्रिका- बीते कुछ वर्षों में युवाओं और विद्यार्थियों का हिंदी भाषा में रुझान कम होता दिखता है। कई बार उन्हें भाषा की गहनता, वाक्य निर्माण, शब्द प्रयोग, मात्रा ज्ञान जैसी साधारण जानकारी नहीं होती। हिंदी में ऐसी गिरावट के क्या मायने हैं?
डॉ. भाभड़ा- मातृभाषा मूलत: बोलने, लिखने, पढऩे और समझने का माध्यम है। जब तक भाषा कमजोर है, तब तक आप सफलता से दूर हैं। स्कूल से यूनिवर्सिटी स्तर तक नई पीढ़ी को हिंदी के साधारण वाक्य या भाषा कौशल की जानकारी देनी चाहिए। तभी उनमें हिंदी के प्रति गंभीरता बढ़ेगी।
पत्रिका- कॉलेज-यूनिवर्सिटी स्तर पर विद्यार्थी का हिंदी भाषा ज्ञान सशक्त नहीं दिखता। वे हिंदी को केवल पास होने की मानसिकता से क्यों पढ़ते हैं?

डॉ. भाभड़ा- उच्च शिक्षण संस्थानों में हिंदी की मौजूदा दशा के लिए नीति-निर्माता, शासन जिम्मेदार है। स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी स्तर पर हिंदी शिक्षण के प्रति उदासीनता बनी हुई है। हिंदी भाषा शिक्षकों के पद रिक्त हैं। कहीं ङ्क्षहदी विभाग ही नहीं है। जब जड़ ही कमजोर होगी तो पौधा कैसे सशक्त पेड़ बनेगा। सबसे पहले तो हिंदी के अंक मूल प्राप्तांक में जोडऩे की शुरुआत करनी चाहिए। इससे विद्यार्थी की सिर्फ हिंदी में पास होने की मानसिकता बदलेगी।
पत्रिका -टीवी, कवि सम्मेलनों, मुशायरों में हिंदी का स्तर कुछ घटता दिख रहा है। क्या यह हिंदी लेखन और संवाद में कहीं न कहीं गिरावट का एहसास कराता है?
डॉ. भाभड़ा- कविता काल की चट्टान पर कवि के अमिट हस्ताक्षर होती है। उसे वक्त कालजयी कृति बनाता है। टीवी शो और अन्य कार्यक्रमों में चुटकुले, लफ्फाजी ज्यादा दिखती है। ऐसे प्रयास हिंदी को स्तरीय बनाने की बजाय रुचि घटाने वाले होते हैं। कश्मीर, पाकिस्तान, लालू, मुलायम जैसे पात्रों को बार-बार सुनाने-लिखने वालों से यह सब छीन लीजिए तो खुद ही समझ आ जाएगा।
पत्रिका -निराला, पंत, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा जैसी शख्सियत और आधुनिक दौर के लेखकों-कवियों में क्या फर्क मानते हैं। क्या आज का लेखन उनके समकक्ष अथवा समतुल्य है?डॉ. भाभड़ा- हिंदी लेखन में नई पीढ़ी ने अच्छी पहचान बनाई है। कबीर, तुलसी, बच्चन, निराला की कविताएं अनपढ़ भी बोल-समझ लेता है। नई पीढ़ी का लेखन भी अच्छा है। भाषायी ज्ञान, घटनाओं-कथानक का संकलन, लेखन काफी स्तरीय है। वे लेखन को जितना सहज,सरल और समतुल्य बनाएंगे उतना पाठकों पर छाप छोड़ेंगे।
पत्रिका- आपने हरिवंश राय बच्चन पर शोध कार्य किया है। हिंदी जगत में बच्चन के लेखन के आलोचक भी हैं। उनकी रचनाओं को आप हिंदी साहित्य में किस पायदान पर पाते हैं?डॉ. भाभड़ा- बच्चन गीतकार, लेखक और कवि थे। उन्होंने वो लिखा जो अपने इर्दगिर्द पाया और घटनाओं को महसूस किया। उन्होंने पहली पत्नी की मृत्यु पर मधुशाला, मधुबाला, मधु काव्य, निशा निमंत्रण जैसी मार्मिक रचनाएं लिखी। दूसरा विवाह हुआ तो आकुल अंतर जैसी ऊर्जायुक्त रचनाएं रचीं। बच्चन समय के प्रवाह के साथ चलने वाले लेखक थे। एक अच्छे लेखक बनने के लिए यही भाव होने चाहिए। आप केवल अभ्यास करते रहिए। रचना को स्वीकारना या अस्वीकार करना पाठकों पर निर्भर करता है।
लेखक परिचय……
डॉ.एन. के. भाभड़ा पूर्व कॉलेज शिक्षा आयुक्त और अजमेर और किशनगढ़ के राजकीय महाविद्यालय में प्राचार्य रहे। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत में एम.ए किया है। करीब 30 शोधार्थियों को पीएचडी-एमफिल करा चुके हैं। उन्होंने स्वयं बच्चन-जीवन और काव्य विषय पर पीएचडी की है। डॉ. भाषा की 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी मियामी, यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड और सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑरलैंडो में हिंदी पर व्याख्यान दिए हैं।

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