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सरवाड़ का पानी, सांपला की जमीन और दादिया का जाट, तीनों मिल जाएं तो हो जाए ठाठ

locationअजमेरPublished: Oct 01, 2020 12:53:06 am

Submitted by:

suresh bharti

सरवाड़ में पहले कुएं-बावडिय़ों की थी भरमार, अब पारम्परिक जल स्त्रोतों से पानी भरने का लदा जमाना, सिर पर मटकी और चरी लेकर नजर नहीं आती कोई महिला, कुएं व बावड़ी से पानी भरने पर होता था शारीरिक व्यायाम

सरवाड़ का पानी, सांपला की जमीन और दादिया का जाट, तीनों मिल जाएं तो हो जाए ठाठ

सरवाड़ का पानी, सांपला की जमीन और दादिया का जाट, तीनों मिल जाएं तो हो जाए ठाठ

अजमेर/सरवाड़. अब तो घर बैठे नलों से पानी भरने की आदत हो गई है। फिल्टर पानी की कैन खरीदना आसान है। एक दिन भी जलापूर्ति नही ंहो तो लोगों की दिनचर्या बिगड़ जाती है। कई लोगों ने ट्यूबवैल खुदवा रखे हैं। इन सभी में शारीरिक परिश्रम तो होता ही नहीं। पहले महिलाएं कुएं बावड़ी से पानी भरकर लाती थी। पनघट पर महिलाओं के हंसी ठहाके,आपस में घर-परिवार की बातें बतियाना अब नहीं है।
अनमोल विरासत को अक्षुण्य रखने की चुनौती

कहावत है कि सरवाड़ का पानी, सांपला की जमीन और दादिया का जाट। यदि एक जगह मिल जाए तो धरती से सोना उपजा सकते हैं। यह कोई जुमला नहीं है बल्कि ऐसी हकीकत है, जिसे कहने में आज भी बुजुर्ग गुरेज नहीं करते। वाकई सरवाड़ का पानी है ही इतना मीठा।
संभवतया इसीलिए सरवाड़ जैसे छोटे कस्बे में १५० से अधिक कुएं, दशक तालाब, तलाई, नहर, कुंड व बावडिय़ां व कई घरों में मीठे पानी की बेरियां देखी जा सकती है। हमारे पुरखों ने इनके निर्माण के लिए कभी सरकार के आगे हाथ नही पसारे। लोगों में इनके निर्माण की होड़ सी लगी रहती थी। दुर्भाग्य से आधुनिक पीढ़ी पुरखों की इस अनमोल विरासत को अक्षुण्य नहीं रख पा रही है।
कभी पनघट रहते थे आबाद

सरवाड़ के घरों में जब नल नहीं पहुंचा था, तब तक कस्बे में मीठे पानी की कोई कमी नहीं थी। तड़के पांच बजे ही सिर पर इडंूणी व उस पर मटकी रख महिलाएं गीतों की मधुर स्वरलहरियां बिखेरती हुई पानी भरने कुओं पर पहुंच जाया करती थी।
देर सुबह तक महिलाओं की हंसी-ठिठोली से पनघट आबाद रहते थे। कुंड-बावड़ी, तालाबों व नहर पर भी लोगों के नहाने-धोने के ऐसे ही नजारे दिखाई पड़ते थे। उस समय लोगों को वाकई इन पेयजल स्रोतों की बड़ी कद्र व फि क्र थी। यही कारण था कि सालों तक यहां के वाशिन्दों को कभी पेयजल संकट का सामना नही करना पड़ा। चाहे कितना भी सूखा क्यों नही पड़ा, यहे पेयजल स्रोत कभी रीते नहीं हुए।
नामधारी पेयजल स्रोत

सरवाड़ में रेगर समाज का कुआं, धनजी का कुआं, भट्टजी का कुआं, मालियों की बेरी, सांखला की बेरी, गदई की बेरी, सोनगरां की बेरी, अस्थल के पास गिरधारीनाथ का कुआं, धोला कुआं, दरगाह की बेरी आदि आज भी इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पुरखों ने आने वाली कई पीढिय़ों के लिए मीठे पानी का इंतजाम करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इनमें कई कुएं व बेरियों का पानी अपनी ठंडक व मिठास के लिए पूरे चौकले में मशहूर था।
गणगौरी चौक स्थित सांखलों की बेरी के तो क्या कहने थे, उसके पानी की मिठास तो लोग आज तक नहीं भूले हैं। बुजुर्ग कहते हैं कि इस बेरी के पानी से केवल प्यास ही नहीं बुझती थी, बल्कि तृप्ति का जो अदभुत अहसास होता था, उसे शब्दों में बयां नही किया जा सकता है।
सांपला गेट के पास स्थित गदई की बेरी, अस्थल का कुआं, दरगाह की बेरी आदि भी मीठे पानी का प्रमुख स्रोत थी। यहां सुबह से शाम तक पानी भरने वालों का तांंता लगा रहता था। कस्बे में होने वाले जीमण व अन्य बड़े कार्यक्रमों में इन्ही कुओं से कुम्हार जाति के लोग पानी की टंकिया भरकर बैलगाडिय़ों से पहुंचाते थे। नहाने-धोने व कारखाने के काम के लिए धोबियों का कुआं मशहूर था, जहां से भिश्ती चमड़े की परवाल में पानी भर-भर कर ले जाते थे।
बेकद्री का आलम

आज से ३०-३५ साल पहले घरों में नल क्या आए, ऐसा लगा कि जैसे इन पेयजल स्रोतों की अब कोई जरूरत ही नही रही। ज्यों-ज्यों नल घरों की आवश्यकता बनने लगे, त्यों-त्यों पेयजल के ये पारंपरिक स्रोत नजरों से ओझल होते चले गए। लोगों का इन कुओं-बावडिय़ों पर आना कम होता चला गया। सांखला की बेरी, सोनगरा की बेरी या फि र गदई की बेरी सभी लोगों की उपेक्षा का शिकार होती चली गई।
सरवाड़ के इन परम्परागत पेयजल स्रोतों की सार-संभाल के लिए न जनता, न जनप्रतिनिधि और न ही प्रशासन गंभीर है। जनता ने आंख फे री तो प्रशासन ने भी इनकी सुध नहीं ली। एक दिन शहर में नल नहीं आने पर पानी के लिए त्राहि-त्राहि मचती है तो कु छ पल के लिए लोगों को कुएं-बावड़ी याद आते हैं, लेकिन फि र भूल जाते हैं।
खतरे में बेरियों का अस्तित्व

सांखला की बेरी का तो अस्तित्व ही समाप्त हो गया। बेरी तक आने-जाने के रास्ते अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए। अन्य बेरियों का पानी भी गंदला गया, जिससे लोगों ने काम में लेना छोड़ दिया। क ई कु ड़े-कचरे के ढेर में तब्दील हो गए। घरों में स्थित बेरियां भी अधिकांशत: नेस्तनाबूत कर दी गई।
समाज विशेष के कुओं की भी देखभाल नहीं होने से उनका भी अस्तित्व संकट में है। जवान पीढ़ी को तो संभवत: इनके होने अथवा नहीं होने की जानकारी तक नहीं है। अब जिस दिन घरों में नलों में पानी नहीं आता है, तब लोगों की इनकी याद सताती है। डाई नदी के किनारे-किनारे खेतों में बड़ी संख्या में खुदे कुओं की हालत भी इनसे जुदा नहीं है।
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