कोर्ट ने विश्वविद्यालय को संस्थान के सहायक निदेशक का बकाया वेतन दो माह में भुगतान करने का निर्देश दिया है और कहा है कि काम लेकर वेतन न देना बेगार कराना है। जो संविधान के अनुच्छेद 23 के अंतर्गत न केवल प्रतिबंधित किया गया है, अपितु यह दंडनीय भी है। कोर्ट ने कहा है कि यदि याची को भुगतान नहीं किया जाता तो जवाबदेह अधिकारियों के खिलाफ नियमानुसार आपराधिक कार्यवाही की जायेगी।
यह आदेश न्यायमूर्ति पंकज मित्तल तथा न्यायमूर्ति सरल श्रीवास्तव की खण्डपीठ ने संस्थान की सेवानिवृत्त सहायक निदेशक रेखा सिंह की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है। याचिका पर अधिवक्ता योगेश अग्रवाल तथा भारत सरकार के अधिवक्ता अरविन्द गोस्वामी, रिजवान अली अख्तर व विश्वविद्यालय के अधिवक्ता नीरज त्रिपाठी ने बहस की। याची का कहना था कि वह लगातार कार्यरत रहते हुए 2017 में सेवानिवष्त्त हुई। विश्वविद्यालय अधिनियम आने के बाद कार्यकारिणी ने परिनियमावली में संशोधन प्रस्ताव छह साल पहले भेजा है।
विजिटर की सहमति न मिलने से 2014 से वेतन भुगतान नहीं किया गया। वह वेतन पाने की हकदार है। विजिटर अनिश्चित काल के लिए प्रस्ताव रोके नहीं रख सकते। यदि इसे इंकार माना जाय तो कारण दिया जाना जरूरी है। भारत सरकार का कहना था कि सहमति देना विजिटर पर बाधकारी नहीं है। स्ववित्तपोषित संस्थान होने के नाते याची सरकार से वेतन की मांग नहीं कर सकती। याची का कहना था कि बिना वेतन के कार्य लेना बेगार कराना है। जो अनुच्छेद 17, 23 व 24 के विपरीत है। सरकार का दायित्व है कि वह वेतन भुगतान सुनिश्चित कराये।
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