दंडी बाड़ा में इस दौरान दंडी संन्यासियों और संतों के अलावा कल्पवास करने वाले तमाम श्रद्धालुओं की भीड़ रही ।संगम की रेती पर हुए कल्पवास के बाद एक दूसरे से भी मुलाकात की रस्म अदा की गई। परंपरा के अनुसार पौष पूर्णिमा से लेकर माघी पूर्णिमा तक कल्पवास के बाद मेले से विदा लेने से पहले साधु संत फूलों की और अबीर गुलाल की होली खेलते हैं। माघी पूर्णिमा के स्नान के बाद अपने.अपने मठ मंदिरों को साधु सन्यासी चले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि त्रिजटा स्नान के बाद सन्यासियों का डेरा उजड़ जाता है। लेकिन आम कल्पवासियों और श्रद्धालुओं को चले जाने के बाद संत महात्मा भी संगम नगरी के आसपास के मठों में रहकर स्नान करते हैं।
अखिल भारतीय दंडी स्वामी परिषद के संरक्षक स्वामी महेशाश्रम महाराज ने बताया कि संगम की रेती पर अनादिकाल से कल्पवास की परंपरा चल रही है। इस परंपरा को देवताओं ने शुरू किया था ।जिसके बाद इसे ऋषि मुनियों ने अपनाया उनके मुताबिक डंडी समाज सनातनी परंपराओं सिद्धांतों को आगे बढ़ाते हुए हर साल होली मिलन का आयोजन करता है। इस आयोजन में एक तरफ जहां संतों का एक दूसरे से मिलना होता है। वहीं आगामी वर्ष में पुनः आने के वादे के साथ एक दूसरे से विदा होते हैं