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अलवर से एक कविता रोज: बचपन की दहलीज पर बच्चियां, लेखक- सरिता भारत अलवर

locationअलवरPublished: Sep 21, 2020 05:16:39 pm

Submitted by:

Lubhavan

बचपन की दहलीज पर अंजान अबोध बच्चियां,जो खुलेआम मंदिरों, स्कूलों, सड़को पर गुजर रही है।देह की दहलीज पर एक राक्षसी पुरुष केभयावह दस्तक और उसके अश्लील तांडव,को कैसे झेल पाई होंगी अबोध बच्चियां।।

Alwar Se Ek Kavita Roj: Bachpan Ki Dehleej By Sarita Bharat

अलवर से एक कविता रोज: बचपन की दहलीज पर बच्चियां, लेखक- सरिता भारत अलवर

बचपन की दहलीज पर अंजान अबोध बच्चियां,
जो खुलेआम मंदिरों, स्कूलों, सड़को पर गुजर रही है।
देह की दहलीज पर एक राक्षसी पुरुष के
भयावह दस्तक और उसके अश्लील तांडव,
को कैसे झेल पाई होंगी अबोध बच्चियां।।

बच्चियां जिनकी मां बचपन में,
मरमरी से बदन पर तेल मालिश कर,
अपने बदन के टुकडे को बड़ा कर रही हैं।
कोई फर्क नहीं है भाई और बहन में,
किंतु किसे पता भाई का ही दोस्त,
उसकी बहन को घुरिया रहा है।
बच्चियां…जिनकी आंखों में हौले से काजल लगाती है माँ,
उन्हीं की आंखों में अंधकार की गहरी सुरंग लिए जी रही हैं बच्चियां!
नन्हें पैरों में छोटी पैजनिया पहन छम-छम छमाती, खिलखिलाती तारे की तरह टिमटिमाती,
बच्चियाँ भयभीत है पुरुष की परछाई से,
हाथों की कलाइयों में चूड़ियां खनखनाती,
हाथों में अपनी गुड़िया थामे,
पार्कों में खेलने जाती।
बच्चियां कैसे संभाले अपने देह के उस हिस्सो को,
जिनका देह हो जाना नहीं जानती वो।
जिसको तिनका-तिनका रौंदे जा रहा है विकृत मानसिकत भरा यह मर्द,
युद्ध सदियों से लड़े जा रहे हैं इस संसार में,
इतिहास के स्याह-सफेद सुनहरे पन्नों में,
एक युद्ध यह भी लड़ना होगा नैतिकता और
मानवता की अनंतकाल में असभ्यताओं के खिलाफ सभ्यताओं का युद्ध,
इस अभिशप्त समय में जब दुख और पीड़ा हवा की लहरों पर सवार है
आस की लौ थरथरा उठी हैं
नारी जाति पर,
तब कुछ करना होगा
-बहनों कुछ करना होगा
-बहनों कुछ करना होगा
-बहनों कुछ करना होगा

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