बुजुर्गों का कहना है कि उस समय आज की तरह बैनर-पोस्टर तो थे नहीं, किसी के घर की दीवार पर अपने पार्टी का चुनाव चिन्ह आपने और झंडा टांगने के लिए हिम्मत जुटाने पड़ती थी। हालांकि ऐसा नहीं था कि लोग विरोध कर देंगे या कोई विवाद हो जाएगा, बल्कि इसलिए कि जब पार्टी के उतने कार्यकर्ता नहीं होने के कारण लोग संकोच करते थे। धीरे-धीरे समय के साथ राजनीति बदलती गई और अब तो प्रिंट मीडिया, आकाशवाणी, दूरदर्शन के साथ सोशल मीडिया ने अपना स्थान बना लिया है।
टिफिन लेकर निकलते आज के दौर की तरह कार्यकर्ताओं को खुश करने की जरूरत नहीं होती थी। लोगों की पार्टी और प्रत्याशी के प्रति इतनी निष्ठा और समर्पण होती थी कि प्रचार करने जाते थे तो अपने साथ घर से टिफिन लेकर।
मुखिया का समर्थन सर्वोपरि प्रत्याशी गांव में चुनाव के प्रचार के लिए आने पर गांव का मुखिया ही पूरे गांव में मतों का समर्थन दे देता था। इसके बाद मुखिया के अनुसार ही पूरे गांव के लोग उसी को वोट कर देते थे। प्रत्याशी भी गांव में सिर्फ मुखिया के वोट मांगने आता था।
नेता जीप और कार्यकर्ता साइकिल पर प्रचार के न तो इतने संचार के माध्यम थे और न ही प्रत्याशी व दल के पास संसाधन। एक जीप होती थी जिसमें प्रत्याशी पूरे क्षेत्र में घूम-घूमकर चुनाव प्रचार करते थे। जिस दिन जिस गांव में पहुंचना हो तो आसपास के कार्यकर्ता पहले ही इक_े रहते थे। प्रत्याशी जीप में आगे आगे चलते थे और कार्यकर्ता नारे लगाते हुए पीछे पीछे साइकिल पर।