अलवर जिला प्रदेश की सरकार गठन में महत्वपूर्ण योगदान देता रहा है। वर्ष 1967 में समर्थलाल मीणा के जमाने से सहयोग का शुरू हुआ यह दौर पिछले चुनाव तक जारी रहा। इस बार भी संभावना है कि अलवर फिर यह इतिहास दोहराए। विधानसभा चुनाव के बाद जब भी प्रदेश में नई सरकार के गठन के लिए निर्दलीय एवं तीसरे मोर्चे के विधायकों की जरूरत होती है, तब अलवर से जीते ऐसे विधायक प्रदेश में बनने वाली सरकार के साथ रहते आए हैं।
तीसरे मोर्चे के तीन प्रत्याशियों पर नजर : इस बार राजनीतिक पंडित अलवर जिले में विधानसभा चुनाव में तीसरे मोर्चे के दलों के दो से तीन प्रत्याशियों के जीतने की उम्मीद जता रहे हैं। इन तीनों ही प्रत्याशियों पर कांग्रेस व भाजपा नेताओं की नजर है। हालांकि इनमें से ज्यादातर से इन दलों के प्रमुख नेताओं का सम्पर्क भी हो चुका है। जीतने पर रविवार को ही मतगणना के बाद दोनों प्रमुख दलों के प्रयास इन्हें जयपुर अपनी पार्टी के बाड़े में ले जाने के रहेंगे।
तीसरे मोर्चे के ये प्रत्याशी शर्त भी रख रहे : तीसर मोर्चे के ये प्रत्याशी प्रमुख दलों को सरकार गठन में सहयोग देने के बदले में मंत्री पद से लेकर अन्य शर्त भी रख रहे हैं। ऐसे जिताऊ प्रत्याशियों की मांग को प्रमुख दलों के स्थानीय नेताओं की ओर से सरकार बनाने में जुटे बड़े नेताओं तक पहुंचाई गई है।
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सरकार गठन में अलवर बनता है संकट मोचक
विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाने पर अलवर जिला अनेक मौकों पर संकट मोचक की भूमिका निभाता आया है। विधानसभा चुनाव 2018 में भी कांग्रेस सरकार के गठन में अलवर के दो बसपा और दो निर्दलीयों का सहयोग मिला। उससे 1991 में भाजपा सरकार को जगत सिंह दायमा, 1993 में डॉ. रोहिताश्व शर्मा, नसरू खां, मंगलराम कोली, सुजानसिंह यादव आदि का साथ मिला।