कांग्रेस को 1984 के बाद नहीं नसीब हुई जीत वर्तमान में अम्बेडकरनगर लोकसभा क्षेत्र भाजपा के कब्जे में हैं। 2014 के चुनाव में भाजपा के डॉ हरिओम पांडेय ने पहली बार जीत दर्ज कराई थी। 1952 से शुरू हुए लोकसभा चुनाव में सबसे पहले कांग्रेस के पन्नालाल विजयी हुए थे, जो लगातार 1957 और 1962 में भी विजयी हुए। 1967 और 1971 में भी कांग्रेस से राम जी राम और 1984 राम पियारे सुमन विजयी घोषित हुए। 1984 कांग्रेस के लिए आखिरी जीत यह लोकसभा क्षेत्र साबित हुई। उसके बाद से कांग्रेस लाख कोशिशों के बावजूद जीत नही दर्ज करा सकी। कांग्रेस से नाराज मतदाताओं ने 1980 और 1989 जनता पार्टी व 1991 में लोकदल के टिकट पर राम अवध यहां से चुनाव जीत चुके हैं। 1989 में भाजपा यहां चुनाव जीतते जीतते रह गई थी। भाजपा के बेंचन राम सोनकर मात्र 127 वोटों से चुनाव हार गए थे।
कांग्रेस की लगातार नाकामयाबी का नतीजा यह रहा कि क्षेत्रीय दलों का महत्व इस क्षेत्र में खूब बढ़ा और 1996 के चुनाव में इस सीट पर पहली बार बहुजन समाज पार्टी के घनश्याम चंद्र खरवार अपनी जीत दर्ज कराए। उसके बाद 1998, 1999 और 2004 में मायावती यहां से सांसद चुनी गईं। 2002 में हुए लोकसभा चुनाव में भी बसपा के त्रिभवन दत्त यहां से सांसद चुने जा चुके हैं।
बसपा ने पांच बार चखा जीत का स्वाद
कांग्रेस की लगातार नाकामयाबी का नतीजा यह रहा कि क्षेत्रीय दलों का महत्व इस क्षेत्र में खूब बढ़ा और 1996 के चुनाव में इस सीट पर पहली बार बहुजन समाज पार्टी के घनश्याम चंद्र खरवार अपनी जीत दर्ज कराए। उसके बाद 1998, 1999 और 2004 में मायावती यहां से सांसद चुनी गईं। 2002 में हुए लोकसभा चुनाव में भी बसपा के त्रिभवन दत्त यहां से सांसद चुने जा चुके हैं।
बसपा ने पांच बार चखा जीत का स्वाद
2004 में दो जगहों से विजयी होने के कारण मायावती ने इस सीट को छोड़ दिया था, जिसके बाद हुए उप चुनाव में सपा के शंखलाल मांझी यहां से निर्वाचित घोषित हुए। 2009 के चुनाव इस लोकसभा क्षेत्र से बसपा के राकेश पांडेय चुनाव जीते, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की चली आंधी ने यहां भी अपना असर दिखाया और पहली बार यहां कमल खिल गया।
अब एकबार फिर लोकसभा चुनाव में सारी राजनीतिक पार्टियां जोर आजमाइश शुरू कर दी हैं, लेकिन इस बार गेंद किसके पाले में जायेगा, यह कह पाना जरा मुश्किल है। वैसे तो सभी दल अपनी अपनी जीत के दावे कर रही हैं और सपा बसपा के गठबंधन के बाद तो लोग इस बात का कयास भी लगा रहे हैं कि शहद यह गठबंधन इस बार सभी पर भारी पड़े, लेकिन यहां के पुराने चुनावी इतिहास को जानने के बाद यह अनुमान लगा पाना कठिन है कि यहां का मतदाता किस पाले में खड़ा होगा।