यह अलख करीब 600 वर्ष पूर्व ही सूफी संत मख्दूम साहब ने यहां जगाई थी। मख्दूम साहब की राम व रहीम में बराबर श्रद्धा थी। सरयू से उनका अगाध प्रेम था। अपनी तपस्या के लिए सरयू नदी को ही चुना। मख्दूम साहब ने प्रभु राम की नगरी अयोध्या में मोक्षदायिनी सरयू नदी में एक पैर पर खड़े होकर 40 दिन तक तपस्या की थी। दरगाह के सज्जादानशीन नैयर मियां बताते हैं कि जिस घाट पर उन्होंने तपस्या की थी, वह घाट काफी दिनों तक मख्दूम घाट के नाम से जाना गया। नैयर मियां बताते हैं कि सूफियों ने हर व्यक्ति की भावनाओं का सम्मान करते हुए इंसानियत की सेवा की और मोहब्बत का पैगाम दिया।
सछ्वाव को मजबूत करती है बसंत मनाने की परंपरा
मख्दूम साहब की दरगाह सर्वधर्म समभाव व सद्भाव का संदेश देती हैं। दरगाह से जुड़े शाह हयात मसूद गजाली कहते हैं कि मख्दूम साहब ने हमेशा सबका सम्मान किया। दरगाह में हर वर्ग संप्रदाय के लोग आते हैं और मख्दूम साहब की जियारत करते हैं। खानकाह के अंदर बसंत मनाने की परंपरा सछ्वाव को मजबूत करती है।