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बाहुबली रमाकांत के कारण इस नेता को नहीं मिली योगी मंत्रिमंडल में वजह

locationआजमगढ़Published: Aug 23, 2019 03:16:22 pm

Submitted by:

sarveshwari Mishra

विधानसभा और लोकसभा चुनाव में हार और विकास अवरूद्ध होने की जिम्मेदारी अखिलेश पर थोपने की तैयारी

Arunkant Yadav

Arunkant Yadav

आजमगढ़. जिले का एक मात्र विधायक होने के बाद भी अरूणकांत यादव को योगी सरकार के मंत्रीमंडल में जगह नहीं मिली। आखिर क्यों?, क्या आजमगढ़ को लेकर योगी सरकार गंभी नहीं है या फिर वह हासिए पर पहुंच चुके बाहुबली रमाकांत यादव को दोबारा राजनीतिक जमीन तैयार करने का अवसर नहीं देना चाहती। आज यह चर्चा का सबसे बड़ा विषय है।

वैसे सीएम योगी आदित्यनाथ लगातार यह दावा करते रहे हैं कि आजमगढ़ जिला उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल है। लोकसभा चुनाव के दौरान वे लगातार आजमगढ़ जीतने का दावा करते रहे और रमाकांत यादव को दरकिनार कर अपने बेहद करीबी फिल्म स्टार दिनेश लाल यादव निरहुआ को सपा मुखिया अखिलेश यादव के खिलाफ मैदान में उतारा था। यह अलग बात है कि निरहुआ अखिलेश को हरा नहीं पाए लेकिन जिस तरह से निरहुआ चुनाव हारने के बाद लगातार आजमगढ़ में जमें हुए हैं उससे भाजपा की आजमगढ़ के प्रति रणनीति साफ झलक रही है। चुनाव के बाद चार माह में निरहुआ की 15 बार जनपद यात्रा और सारे त्योहारों का जनता के बीच रहकर मनाना यह बताता है कि पार्टी निरहुआ के जरिये यहां सपा के यादवों पर वर्चश्व को तोड़ना चाहती है लेकिन सवाल यह उठता है कि फिर सरकार में जिले की अनदेखी क्यों। बाहुबली रमाकांत यादव के पुत्र अरूणकांत यादव को मंत्री बनाकर बीजेपी यादवों के बीच गहरी पैठ बनाने की कोशिश कर सकती थी लेकिन पार्टी ने ऐसा नहीं किया आखिर क्यों?।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या अब यह जिला सीएम की प्राथमिकता में नहीं रहा या पार्टी का प्लान कुछ और है। पार्टी सूत्रों की मानें तो सीएम योगी आजमगढ़ से एक ऐसे नेता का कैरियर समाप्त करने की ठान चुके है जो कभी भी बाजी पलटने की हिम्मत रखता है। यह नेता कोई और नहीं बल्कि अरूणकांत यादव के पिता रमाकांत यादव है। रमाकंत यादव द्वारा वर्षो पहले की गयी दूसरी शादी के बाद से ही अरूणकांत से उनके संबंध बहुत अच्छे नहीं रहे है। पार्टी को भरोसा है कि अरूणकांत उनके साथ जाने के बजाय अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए पार्टी के साथ रहेंगे। रहा सवाल रमाकांत का तो वे हमेशा से अवसरवादी रहे हैं और पूर्वांचल में उन्हें सबसे बड़ा सवर्ण विरोधी माना जाता है। जगजीवन राम की पार्टी से वर्ष 1984 में राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाले रमाकांत यादव चार बार विधायक और इतनी ही बार सांसद रहे हैं। विधायक रहते हुए जब रमाकांत यादव पर हत्या का आरोप लगा तो उस समय मुलायम सिंह ने रमाकांत को बचाने का काम किया था लेकिन रमाकांत यादव उनके भी नहीं हुए और वर्ष 2004 में सपा छोड़कर बसपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े। बसपा से जीत मिलने के बाद वे बसपा के भी बनकर नहीं रह पाए। वर्ष 2008 में वे बीजेपी में शामिल हो गए। वर्ष 2009 में वे बीजेपी से सांसद चुने गए। वर्ष 2014 में जब देश में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार बनी तो रमाकांत को चुनाव हारने के बाद भी उम्मीद थी कि उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने वर्ष 2016 में मंच से पूर्व गृहमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। यहीं नहीं वे कई बार पार्टी लाइन से इतर जाकर बीजेपी का विरोध किये। वर्ष 2017 के चुनाव में भी उन्होंने बीजेपी को नुकसान पहुंचाया लेकिन रमाकांत को लगता था कि बीजेपी के पास आजमगढ़ में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो सपा बसपा को टक्कर दे सके इसलिए तमाम बगावतों के बाद भी बीजेपी मजबूरी में अखिलेश के खिलाफ 2019 में प्रत्याशी बनाएगी लेकिन सीएम योगी ने संगठन पर दबाव बनाकर रमाकांत के बजाय अंतिम समय में अपने करीबी निरहुआ को प्रत्याशी बनाकर रमाकांत के राजनीतिक कैरियर को अधर में लटका दिया। रही सही कसर सपा मुखिया अखिलेश यादव ने पार्टी में न शामिल कर पूरी कर दी।

मजबूर रमाकांत को कांग्रेस का सहारा लेना पड़ा। यूपी में हासिए पर चल रही कांग्रेस ने उन्हें पार्टी में लेने के साथ ही भदोही से टिकट दे दिया। रमाकांत ने अपना वर्चश्व कायम करने के लिए पूर्वांचल में बीजेपी को नुकासन पहुंचाने की पूरी कोशिश की लेकिन वे चुनाव में खुद अपनी जमानत नहीं बचा पाए। भदोही सीट पर यादव मतों की बाहुलता के बाद ही रमाकांत 25 हजार मतों का आंकड़ा नहीं पार कर पाए और खुद राजनीति में हासिए पर चले गए। बाद में सरकार ने उनसे वाई श्रेणी सुरक्षा भी वापस ले ली। धीरे-धीर कर रमाकांत से शेरे पूर्वांचल का तमगा भी छिनने लगा है। कारण कि 2019 की हार ने कहीं न कहीं यह संदेश दे दिया है कि आजमगढ़ के बाहर रमाकांत का कोई जनाधार नहीं है। सूत्रों की नहीं माने तो भाजपा अरूणकांत को मंत्री बनाना चाहती थी लेकिन संगठन और सरकार यह नहीं चाहती कि पुत्र के मंत्री बनने का फायदा उठाकर रमाकांत यादव फिर अपने लिए राजनीतिक जमीन तैयार कर सके और उनकी हनक कायम हो। यही वजह है कि अंमित समय पर अरूण का नाम मंत्रियों की सूची से गायब हो गया। पार्टी का मानना है कि यदि रमाकांत मजबूत होते हैं तो वे पार्टी और निरहुआ दोनों के लिए मुसीबत खड़ी करेंगे जबकि बीजेपी निरहुआ के दम पर ही यहां सपा और बसपा के गढ़ को तोड़ने में जुटी है।
BY- Ranvijay Singh

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