आज जहां कुंवर सिंह उद्यान है वहां पहले कम्पनी बाग हुआ करती थी जिसमें अंग्रेजों का खजाना और गोला बारूद रखा जाता था। इसकी सुरक्षा के लिए देशी-विदेशी फौजों की अलग-अलग टुकड़ी तैनात की जाती थी। 1857 में जब पूरे देश में क्रान्ति की ज्वाला भड़क रही थी तो आजमगढ़ भी इससे अछूता नहीं रहा। यहां के लोग भी अंग्रेजी सत्ता को मटियामेट करने और स्वयं स्वतंत्र होने के लिए आतुर थे। 3 जून 1857 को कम्पनी बाग के खजाने से 7 लाख रुपया वाराणसी जाना था। उसी दिन रात में देशी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह की यह आग ऐसी फैली कि पूरे जिले में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी। सैनिकों ने 7 लाख रुपये, गोला बारूद व बंदूकें लूट ली। जेल और सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। जेल में बंद कैदियों को आजाद कर विप्लवी सेना में भर्ती कर लिया गया। क्रान्तिकारियों ने नगर पर स्वतंत्रता का झण्डा लहरा दिया। आजादी की इस जंग में ले. हचकिन्सन और कर्नल डेविस मारे गये। सर्जेंट पैलिसर ने वाराणसी भागकर जान बचायी। 3 सितम्बर 1857 को आजमगढ़ पर पुनः अंग्रेजी हुकूमत स्थापित हो गयी।
1857 की क्रान्ति में अहम भूमिका निभाने वाले कुंवर सिंह भले ही इस लड़ाई में शामिल नहीं थे लेकिन विप्लवी सेना उनसे पूरी तरह प्रभावित थी। जब पूरे देश में क्रान्ति ठण्डी पडऩे लगी तो उन्होंने आजमगढ़ की सरजमीं पर अंग्रेजों के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया। बगहीडाड़ सहित विभिन्न क्षेत्रों में मौजूद अवशेष इस क्रान्तिकारी के साहस की कहानी आज भी बयां कर रहे हैं। देश की आजादी के बाद इसी क्रान्तिकारी के नाम पर कम्पनी बाग का नाम शहीद कुंवर सिंह उद्यान रखा गया। उद्यान के भव्य गेट को शहीद द्वार बनाया गया। साथ ही यहां उनकी प्रतिमा स्थापित की गयी लेकिन एक दशक पूर्व उनकी प्रतिमा मरम्मत के नाम पर नगरपालिका ने एक कमरे में बंद कर दिया जो आज भी आजादी की राह देख रही है। रहा सवाल उद्यान का तो वर्ष 2004 में एक राजनीतिक दल की सभा के लिए इसकी हरियाली को नष्ट कर दिया गया। तमाम पेड़ काट दिये गये। उद्यान के भीतर मंच बना दिया गया। काफी विरोध के बाद दो वर्ष पूर्व मंच हटाया गया लेकिन आज भी यहां राजनीतिक सभाएं होती है। अफसोस की बात है कि इसकी हरियाली वापस लाने के लिए हर वर्ष पौधे लगाये जाते हैं लेकिन वे नष्ट हो जाते है। अब तो यहां की सफाई तक नहीं होती है। हाल में आंदोलन के बाद यहां झाड़ू लगाया गया।