गौर करें तो पूर्व केंद्रीय मंत्री चंद्रजीत यादव, पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव, पूर्व विधायक राजबली यादव, पूर्व मंत्री राम बचन यादव, पूर्व विधायक राम दर्शन यादव, पूर्व विधायक भीमा यादव, पूर्व सांसद राम हरख यादव, पूर्व सांसद ईश दत्त यादव, रमाकांत यादव आदि इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। ये नेता जिस भी दल में गये उसके सिर जीत का सेहरा बंधा। राम बचन यादव ने तो वर्ष 1969 में यहां जनसंघ का खाता खोल दिया जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में जब मायावती और कांशीराम जैसे दिग्गज चुनाव हार गये थे उस समय राम कृष्ण यादव ने यहां बसपा के टिकट पर जीत हासिल की थी। यह इस बात का प्रमाण है कि यहां यादव जाति का वर्चश्व था। वे जिसके साथ जाते थे जीत उसके खाते में जाती थी। वर्ष 1989 के बाद से ही जिले की राजनीति में बदलाव का दौर शुरू हुआ और वर्ष 1993 में सपा के अस्तित्व में आने के बाद यह कफी बदल गयी। यादव मतदाता तेजी से इस दल के साथ जुड़े। वहीं दलित शुरू से ही बसपा के साथ रहे। परिणाम रहा कि जिला दोनों दलों का गढ बनता गया। यहां कभी सपा जीती तो कभी बसपा। साथ ही राजनीति में बाहुबलियों का वर्चश्व भी बढ़ा। पूर्व मंत्री अंगद यादव, विधायक रमाकांत यादव, दुर्गाप्रसाद यादव के राजनीति में आने के बाद धीरे-धीरे कर यादव नेताओं की छवि बाहुबलियों की बनती गयी।
वहीं राजनीति में अवसरवाद भी खूब देखने को मिला। आज यह जिला सपा का गढ़ बन चुका है। विधानसभा की सभी दस सीटों पर पार्टी का कब्जा है लेकिन यादव राजनीति में काफी बदलाव आया है। पिछले चार चुनाव पर गौर करें तो वर्ष 2007 में यहां बसपा के पास छह और सपा के पास चार सीटें थी। उस चुनाव में बलराम यादव जैसे दिग्गज भी चुनाव हार गये थे और उन्हें पराजित किया था सुरेद्र मिश्र जैसे नौसीखिये ने। इसके पीछे मात्र एक वजह थी मतों का धु्रवीकरण। वर्ष 2012 के चुनाव में सपा को दस में से नौ सीटें मिली जबकि बसपा को मात्र एक सीट नसीब हुई। बसपा को एक सीट इसलिए मिली क्योंकि उसका प्रत्याशी अल्पसंख्यक था। यहां सपा से अखिलेश यादव मैदान में थे और दलित व मुस्लिम वोटोे के साथ जाने का परिणाम रहा कि सपा क्लीन स्वीप नहीं कर सकी। सपा की लहर के बाद भी अन्य जातियों का धु्रवीकरण बसपा के साथ हुआ। कुछ ऐसा ही हाल दीदारगंज सीट पर रहा। यहां बसपा प्रत्याशी और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर वह चुनाव इसलिए हारे कि उनके खिलाफ आदिल शेख थे और मुश्लिम मतदाताओं के साथ अन्य मतों का भी ध्रुवीकरण इनके साथ हो गया।
फूलपुर में सपा के श्याम बहादुर यादव सात सौ मत से चुनाव जरूर जीते लेकिन इसके पीछे वजह रही बसपा थी अंतरकलह। यहां हिटलर का टिकट काटकर अबुल कैश को दिया गया और हिटलर का साथ कैश छोड दिये। निजामाबाद में सपा से आलमबदी और गोपालपुर से वसीम अहमद चुनाव जीते थे। सदर दुर्गा प्रसाद यादव का गढ आज भी बना हुआ है। लेकिन यदि देखा जाय तो जहां भी अल्पसंख्यक प्रत्याशी रहे वे आसानी से जीते। अगर वे सपा से लड़े तो यादव व बसपा से लड़े तो दलित मतदाता पूरी ताकत से इनके साथ खड़े रहे लेकिन मुस्लिम मतदाता सीधे जाति पर ध्यान दिये। जहां उनकी जाति का प्रत्याशी नहीं था वहां वे सपा के साथ खड़े हुए थे।
अब बात करें वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव पर पर सपा फिर पांच सीट पर सिमट गयी और चार सीट बसपा के खाते में गयी। एक सीट बीजेपी ने जीता लेकिन बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ा और वह चार सीटों पर दूसरे नंबर पर पहुंच गई जबकि सपा और कांग्रेस गठबंधन कर मैदान में उतरी थी। इसके बाद भी पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा। इस चुनाव में मुबारकुपर, गोपालपुर, निजामाबाद सीट मुस्लिम प्रत्याशियों के खाते में गयी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा और भाजपा से कई यादव दावेदार थे लेकिन मैदान में सपा बसपा गठबंधन के साथ उतरी और खुद अखिलेश यादव ने चुनाव लड़ा। वहीं बीजेपी ने फिल्म स्टार दिनेश लाल यादव निरहुआ को मैदान में उतारा। इस बार लोकसभा में कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं था। 2014 में बसपा प्रत्याशी रहे शाहआलम सपा का प्रचार किये और अल्पसंख्यक अखिलेश के साथ खड़ा हुआ। अखिलेश यादव 2.60 लाख के अंतर से चुनाव जीते लेकिन जनता में यह संदेश साफ गया कि अगर बसपा का प्रत्याशी भी होता तो क्या होता। कारण कि वर्ष 2014 में बसपा को ढाई लाख से अधिक वोट मिले थे।
वर्ष 2022 में सभी दस सीटों पर सपा का कब्जा हुआ। कारण मुस्लिम मतदाताओं का एकमुश्त सपा के साथ खड़ा होना रहा। अब आजमगढ़ में लोकसभा उपचुनाव हो रहा है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने अपने चचेरे भाई पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतार है। बीजेपी से दिनेश लाल निरहुआ और बसपा से शाहआलम उर्फ गुड्डू जमाली मैदान में हैं। इस चुनाव में भी सपा को यादव से अधिक मुस्लिम नेताओं पर विश्वास दिख रहा है। रमाकांत यादव जैसे कद्दावर नेता को स्टार प्रचारक नहीं बनाया गया जबकि इस सूची में युवा नफीस अहमद को जगह दी गयी। यहीं नहीं चुनाव प्रचार की कमान रामगोपाल के बाद अबू आसिम अंसारी ने संभाल रखी है। इसके अलावा प्रदेश के सभी मुस्लिम नेताओं को मैदान में उतार दिया गया है। आजम खां भी दो सभा कर रहे हैं।
वहीं सपा के यादव नेता सिर्फ सपोर्टर की भूमिका में दिख रहे है। पार्टी का पूरा फोकश मुस्लिम नेता और मतदाताओं पर दिख रहा है। सपा पहली बार मंदिर और मजार तक पहुंचकर भी मतदाताओं को साधने की कोशिश कर रही है। अगर धर्मेंद्र जीतते हैं तो निश्चित तौर पर 2024 में फिर उनकी इस सीट पर दावेदारी होगी। कारण कि कन्नौज सीट पर स्वामी प्रसाद की सांसद पुत्री संघमित्रा टिकट का दावा कर सकती है जो पिता के प्रचार के बाद से ही हाशिए पर है। यह कहीं से भी स्थानीय यादव राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा रहा है। कारण कि साठ साल का इनका वर्चश्व खतरे में दिख रहा है।