आजमगढ़. यूपी में बसपा के साथ गठबंधन टूटने के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव द्वारा पूर्व सीएम मायावती को दिया जा रहा एक के बाद एक झटका अब पार्टी पर भारी पड़ रहा है। समाजवादियों का गढ़ कहे जाने वाले आजमगढ़ में अब पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर को छोड़कर कोई जनाधार वाला नेता नहीं बचा है। खासतौर पर पार्टी में कोई बड़े जनाधार वाला यादव अथवा दलित नेता नहीं बचा है। ऐसे में पार्टी के लिए विधानसभा चुनाव 2022 तो दूर आगामी त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की राह भी कठिन होती दिख रही है।
बता दें कि अस्तिव में आने के बाद से ही आजमगढ़ जिले में सपा और बसपा का वर्चश्व रहा है। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दे तो यहां हमेंशा सपा बसपा के बीच में फिफ्टी- फिफ्टी की लड़ाई देखने को मिली है। वर्ष 1989 में जब बसपा मुखिया और कांशीराम चुनाव हार गए थे उस समय भी आजमगढ़ में बसपा के राम कृष्ण यादव आजमगढ़ संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव जीतने में सफल हुए थे। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने यूपी में प्रचंड बहुमत हासिल किया लेकिन आजमगढ़ सपा और बसपा का वर्चश्व कायम रहा। जिले की दस विधानसभा सीटों में से सपा ने पांच और बसपा ने चार सीट पर जीत हासिल की। वहीं बीजेपी को सिर्फ एक सीट पर संतोष करना पड़ा।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन कर मैदान में उतरी। बीजेपी ने इसके बाद भी यूपी में जबरदस्त प्रदर्शन किया लेकिन आजमगढ़ की दो संसदीय सीटों में एक सपा और एक बसपा के खाते में गयी। चुनाव के बाद सपा बसपा का गठबंधन टूट गया। अब सभी दल अपनी ताकत आंकने के लिए पंचायत चुनाव की तैयारी में जुटे है। बीजेपी ने पहली बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है लेकिन अखिलेश यादव द्वारा आजमगढ़ में बसपा को लगातार दिये जा रहे झटकों से पार्टी की राह मुश्किल होती दिख रही है।
सपा ने पहले 15 मार्च 2020 को बसपा के संस्थापक सदस्य व मजबूत दलित नेता पूर्व सासंद बलिहारी बाबू को पार्टी की सदस्यता दिलायी फिर 22 जुलाई को मायावती के करीबी रहे पूर्व मंत्री चंद्रदेव राम यादव करैली को सपा में शामिल कर लिया। ये दोनों ने बसपा के दलित और यादव चेहरे थे। इनके जाने के बाद पार्टी में कोई भी जनाधार वाला यादव अथवा दलित नेता नहीं बचा है। ऐसे में बसपा के लिए आगे की राह आसान नहीं होगी।