रमाकांत की वापसी में सपा को खुद का फायदा दिख रहा है, लेकिन राजनीति के जानकारों की माने तो सपा को यह दाव भारी पड़ सकता है। कारण कि, सपा में रमाकांत के दोस्त कम दुश्मन ज्यादा है और रमाकांत के चुनाव लड़ने पर वे भीतरघात या बगावत कर सकते हैं। जैसा की पहले भी सपा में होता रहा है। भीतरघात के चलते यहां तीन बार चुनाव हार चुकी है। जिसमें दो बार तो वो तीसरे नंबर पर चली गई थी। रमाकांत के आने के बाद यह खतरा और बढ़ जाएगा। कारण कि, पूर्व मंत्री बलराम यादव की वापसी का अंदरखाने विरोध कर रहे हैं।
बता दें कि, समाजवादी पार्टी में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। गुटबाजी का ही परिणाम था कि मुलायम सिंह यादव को वर्ष 2014 में आजमगढ़ से चुनाव लड़ना पड़ा था। कारण कि, उस समय बलराम यादव का टिकट काटकर उनके राजनीतिक शिष्य व धुर विरोधी हवलदार यादव को टिकट दे दिया गया था। उस समय बलराम ने हवलदार को नीचा दिखाने के लिए मुलायम सिंह को यहां से टिकट लड़ने के लिए तैयार किया था और चुनाव में मुलायम सिंह भी इस गुटबाजी से अछूते नहीं रहे थे। यूं भी कहा जा सकता है कि, पूरे मंत्रीमंडल और अपने कुनबे को मैदान में उतारने के बाद बड़ी मुश्किल से वे चुनाव जीते थे। खुद मुलायम ने कहा था कि अगर उनका परिवार न लगता तो यहां के नेताओं ने तो उन्हें हरा ही दिया था।
बता दें कि, समाजवादी पार्टी में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। गुटबाजी का ही परिणाम था कि मुलायम सिंह यादव को वर्ष 2014 में आजमगढ़ से चुनाव लड़ना पड़ा था। कारण कि, उस समय बलराम यादव का टिकट काटकर उनके राजनीतिक शिष्य व धुर विरोधी हवलदार यादव को टिकट दे दिया गया था। उस समय बलराम ने हवलदार को नीचा दिखाने के लिए मुलायम सिंह को यहां से टिकट लड़ने के लिए तैयार किया था और चुनाव में मुलायम सिंह भी इस गुटबाजी से अछूते नहीं रहे थे। यूं भी कहा जा सकता है कि, पूरे मंत्रीमंडल और अपने कुनबे को मैदान में उतारने के बाद बड़ी मुश्किल से वे चुनाव जीते थे। खुद मुलायम ने कहा था कि अगर उनका परिवार न लगता तो यहां के नेताओं ने तो उन्हें हरा ही दिया था।
इसके पूर्व गौर करें तो सपा के उदय के बाद रमाकांत यादव इस दल में पूर्वांचल के सबसे प्रभावी नेता हुआ करते थे। कहा जाता है कि, मुलामय सिंह की सरकार बचाने के लिए रमाकांत ने मायावती को भी नहीं बख्शा था। गेस्ट हाउस कांड के दौरा रमाकांत और उनके भाई उमाकांत पर मायावती के साथ दुर्व्यवहार का आरोप लगा था। जब रमाकांत पर हत्या का आरोप लगा तो मुलायम सिंह भी खुल कर सामने आए थे और उन्होंने यह साफ कहा था कि, घटना के समय रमाकांत यादव लखनऊ में थे। लेकिन इस दल में रमाकांत के धुर विरोधी बलराम यादव और अमर सिंह भी थे। वर्ष 2004 में विरोधी भारी पड़े तो रमाकांत यादव को सपा छोड़ना पड़ा और वे बसपा का दामन थाम लिए। इसके बाद भी सपा की गुटबाजी कम नहीं हुई।
बल्कि रमाकांत के करीब बाहुबली दुर्गा प्रसाद यादव और बलराम यादव में वर्चश्व की जंग छिड़ गई। वहीं अमर सिंह का अपना एक अलग गुट बन गया। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में जब रमाकांत यादव बसपा से मैदान में उतरे तो सपा ने दुर्गा प्रसाद यादव को उनके खिलाफ उतार दिया। दोनों में कड़ा मुकाबला हुआ। रमाकांत 258216 मत पाकर विजई रहे और दुर्गा प्रसाद 251248 मतों के साथ दूसरे स्थान पर रहे। उस समय आरोप लगा कि, बलराम यादव ने अंदरखाने से विरोध किया जिसके कारण दुर्गा सांसद बनने से वंचित रह गए।
वैसे रमाकांत की मायावती से बहुत दिन तक नहीं बनी और वर्ष 2007 में रमाकांत यादव बसपा छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। इसके बाद वर्ष 2008 में उप चुनाव हुआ और बलराम यादव सपा से टिकट हासिल करने में सफल रहे। भजपा ने रमाकांत और बसपा ने अकबर अहमद डंपी को मैदान में उतारा। इस चुनाव में दुर्गा प्रसाद यादव पर भीतरघात का आरोप लगा। अकबर अहमद डंपी चुनाव जीतने में सफल रहे और भाजपा दूसरे स्थान पर रही जबकि सपा पहली बार तीसरे पायदान पर पहुंच गई। दुर्गा प्रसाद के गढ़ यानि सदर विधानसभा में बलराम यादव को सबसे कम वोट मिला और वे तीसरे स्थान पर रहे जिसके कारण उनका कुल मत दो लाख के आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंच सका। इसके बाद यह गुटबाजी और तेज हो गयी।
वर्ष 2009 के आम चुनाव में फिर भाजपा से रमाकांत यादव और बसपा से अकबर अहमद डंपी मैदान में उतरे। वर्ष 2008 में खराब प्रदर्शन के कारण बलराम यादव को दरकिनार कर सपा ने दुर्गा प्रसाद यादव को फिर प्रत्याशी बना दिया। इस बार भी गुटबाजी हाबी रही। रमाकांत यादव ने 247648 मत हासिल कर पहली बार आजमगढ़ में कमल खिला दिया और डंपी 198609 मत के साथ दूसरे स्थान पर रहे। दुर्गा प्रसाद यादव मात्र 123844 मतों पर सिमट गए। यह सपा का किसी लोकसभा चुनाव में आजमगढ़ में सबसे कम वोट शेयर रहा। इसके बाद दोनों गुटों में तलवार खिंच गयी। इसी दौरान बलराम कें सबसे करीब हवलदार यादव भी उसने दूर हो गये और विरोधी गुट में शामिल हो गए। वर्ष 2014 के चुनाव में बलराम चाहते थे उन्हें या उनके पुत्र डा. संग्राम यादव को टिकट मिले। बलराम को पार्टी से चुनाव लड़ने के लिए हरी झंडी भी मिली लेकिन फिर टिकट हवलदार यादव को दे दिया गया। कहते हैं कि यह बलराम को रास नहीं आया और वे मुलायम सिंह को यह समझाने में सफल रहे कि हवलदार कमजोर प्रत्याशी है, रमाकांत के सामने मुलायम सिंह ही लड़कर चुनाव निकाल सकते है। इसके बाद हवलदार का टिकट कटा और मुलायम सिंह मैदान में उतरे। उन्होंने चुनाव भी जीत लिया।
वर्ष 2014 के बाद पार्टी में घमासान और बढ़ गई। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के दौरान जब जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हुआ तो सपा ने दुर्गा के भतीजे प्रमोद यादव को मैदान में उतारा लेकिन बाद में उनका टिकट काटकर मीरा यादव को प्रत्याशी बना दिया गया। उस समय दुर्गा पर टिकट कटवाने का आरोप लगा। अब यह लड़ाई इस हद तक बढ़ गई है कि दोनों गुट भीतरखाने से एक दूसरे का पर कतरने में लगे हुए है। यह बात पूरी तरह जग जाहिर हो चुकी है। रमाकांत यादव और सपा के राष्ट्रीय महासचिव बलराम यादव एक दूसरे के घुर विरोधी है। अब जबकि रमाकांत यादव सपा में वापसी की तैयारी कर रहे हैं तो यह बलराम से हजम नहीं हो रहा है लेकिन शिवपाल और मुलायम गुट का होने के कारण उनकी पूछ पार्टी में कम हुई है। इसलिए वे खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे है लेकिन सूत्रों की माने तो वे अपने स्तर पर रमाकांत का खुलकर विरोध कर रहे है। वहीं रमाकांत के सत्ता प्रेम से सभी वाकिफ है। अंदर ही अंदर जिलाध्यक्ष हवलदार यादव को भी डर है कि रमाकांत के सपा में वापसी के बाद जिला ंपंचायत अध्यक्ष की कुर्सी उनकी बहू से छिन सकती है। अगले चुनाव में रमाकांत यादव उसपर कब्जा कर सकते है। इनके अलावा भी पार्टी में रकाकांत के कई विरोधी है।
ऐसी स्थिति में यदि अखिलेश यादव रमाकांत यादव को पार्टी में शामिल करते हैं और उन्हें आजमगढ़ सीट से प्रत्याशी बनाते हैं तो फिर भीतरघात हो सकती है। कारण कि, कोई भी विरोधी नहीं चाहेगा कि पार्टी में रमाकांत यादव का प्रभाव बढ़े और वे अखिलेश यादव के करीब पहुंचे।
by रणविजय सिंह