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तीन सगे भाइयों ने अंग्रेंजो की नाक में कर दिया था दम, फांसी पर चढ़े लेकिन इतिहास के पन्नों में नहीं मिली जगह

locationआजमगढ़Published: Jan 25, 2022 12:18:54 pm

Submitted by:

Ranvijay Singh

आज हम स्वतंत्र भारत में सांसे ले रहे हैं तो इसमें जिले के तीन सगे भाइयों का महत्वपूर्ण योगदान है। तीनों भाइयों ने वीर कुंवर सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। एक भाई को फांसी हुई तो दूसरा अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गया। एक भाई सालों तक गुमनाम जीवन जीने के लिए मजबूर रहा लेकिन इतिहास के पन्नों में इन्हें कोई जगह नहीं मिली। यहां तक कि देश व प्रदेश की सरकारें उनका एक स्मारक तक नहीं बनवा पाई।

बवंडरा किला

बवंडरा किला

पत्रिका न्यूज नेटवर्क
आजमगढ़. आजादी के दीवाने वीर सपूत देश को स्वतंत्र कराने के लिए लड़ते रहे। आजादी की लड़ाई में अपना सर्वस्त्र नौछावर कर दिया। जमीन नीलाम हो गयी, किले को अंग्रेजों ने रौंद डाला लेकिन इन वीर सपूतों के चेहरे पर शिकन तक नहीं आयी। आजीवन देश के लिए लड़ते रहे। एक भाई को अंग्रेजों ने खुलेआम इमली के पेड़ पर फांसी दे दिया तो दूसरा भाई 16 वर्ष तक फरार रहते हुए देश की आजादी के लिए संघर्ष करता रहा। …मगर अफसोस कि परिवार इतिहास के पन्नों में दफन होकर रह गया।

आज के नेता इनके लिए अगर कुछ कर रहे हैं तो भद्दे मजाक। इनके गांव में शहीद द्वार तक नहीं हैं। परिजन चाहते हैं कि इनके नाम से छोटा सा स्मारक बने। इसके लिए वह नेताओं और मंत्रियों से गुहार भी लगा चुके हैं लेकिन आश्वासन के सिवाय इन्हें कुछ नहीं मिला जबकि यह परिवार न होता तो शायद आजमगढ़ में कुंवर सिंह का सहयोग करने वाला कोई नहीं होता और ना ही क्रान्तिकारी अंग्रेजों को ईंट का जवाब पत्थर से दे पाते।

बता दें कि 1359 से 1771 तक आजमगढ़ जिला जौनपुर के राजा के अधीन था। 1609 में जहांगीर ने अभिमन्यु सिंह गौतम को मेंहनगर का जागीरदार बना दिया। 1870 तक इनके ही उत्तराधिकारी जागीरदार रहे। 1771 से 1801 तक आजमगढ़ अवध के नवाब के शासन में था। 10 नवम्बर 1801 में आजमगढ़ कम्पनी शासन के अधीन चला गया। 1834 में आजमगढ़ जिला बना। 1836 में टामसन जिले के पहले कलेक्टर नियुक्त किये गये। 1857 में नवाब वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के बाद सूबे में क्रान्ति की आग भड़की जिसका सीधा प्रभाव आजमगढ़ पर पड़ा क्योंकि तत्कालीन अवध राज्य की सत्ता की बागडोर जिन तीन व्यक्तियों के हाथ में थी वे आजमगढ़ के ही थे।

इसमें राजा जसपाल सिंह लखनऊ नगर के समाहर्ता कलेक्टर थे। इनके मझले भाई राजा बेनी माधव सिंह पूर्वी इलाके के सूबेदार तथा अवध सेना के सिपहसलार-ए-आजम थे जबकि इनके सबसे छोटे भाई फतेह बहादुर सिंह नसरते जंग अवध सेना के कमांडर थे। बेनी माधव के पिता राजा दर्शन सिंह ने तीन शादियां की थीं। फतेह बहादुर मझली रानी के पुत्र थे। नवाब की गिरफ्तारी के बाद बेनी माधव सिंह ने नवाब के पुत्र बिरजिश कद्र को अवध का नवाब घोषित कर महारानी विक्टोरिया से मिलने के लिए भेज दिया। अवध सल्तनत का अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारूद, गाल-असबाब लाकर अपने पैतृक रियासत पलास के जंगलों से घिरे अतरौलिया के बवंडरा में छिपाकर रख दिया। साथ ही अवध की फौजी गारद के साथ लखनऊ से लेकर बिहार एवं मध्य प्रदेश के विद्रोहियों को एकत्रित कर सशस्त्र संगठन तैयार किया।

आजमगढ़ शहर के निकट अट्ठैसी के विशेन राजपूतों, हीरा पट्टी के ठाकुर परगट सिंह, परदहां के ठाकुर जालिम सिंह, अजमतगढ़ के गोगा व भीखा साव तथा दुबारी, भगतपुर, नैनीजोर, रुदरी, बम्हौर, मोहब्बतपुर, बगहीडाड़ के क्रान्तिकारियों को संगठन में शामिल किया। आजमगढ़ नगर में पहले से ही 17 नम्बर पल्टन के 500 देशी सैनिक कम्पनी बाग की सुरक्षा में थे। 3 जून 1857 को विद्रोह हुआ। अंग्रेजों का खजाना लूटा गया। जेल से कैदी आजाद किये गये। सरकारी कार्यालयों पर कब्जा कर स्वतंत्रता का हरा झण्डा फहरा दिया गया। इस संघर्ष में लेफ्टिनेंट हचिंसन व कर्नल डेविस मारे गये। 4 जून को विपल्वी सैनिक सरदार बन्धु सिंह के नेतृत्व में फैजाबाद रवाना हो गये। वहां पर भाग रहे अंग्रेजों को घाघरा नदी में बेगमगंज के निकट मौत के घाट उतार दिया और कानपुर के विद्रोहियों की मदद के लिए चल दिये।

इसके बाद माहुल में राजा इशरत जहां, तिघरा में पृथ्वी पाल सिंह तथा अतरौलिया में राजा फतेह बहादुर सिंह ने अपना अधिकार कर लिया। 26 जून 1857 को अंग्रेजी अफसर बेनी बुल्स ने बवंडरा किले की घेराबंदी की। बेनी माधव सिंह की विपल्वी सेना से अंग्रेज परास्त होकर भाग खड़े हुए। राजा की सेना ने अंग्रेजों का पीछा किया। बेनी बुल्स की हार की जानकारी बनारस और इलाहाबाद पहुंची तो भारी संख्या में ब्रिटिश फौज आजमगढ़ भेजी गयी। अंग्रेजी सेना अतरौलिया पहुंचती कि इससे पहले ही कोयलसा में फिर मुठभेड़ हुई और अंग्रेज पुनः परास्त हुए। मैदान छोड़कर भाग रहे अंग्रेजी सेना पर विपल्वी सेना ने कप्तानगंज और सेहदां में पुनः आक्रमण कर गोला-बारूद व रसद छीन लिया तथा स्वतंत्रता का हरा झंडा फहरा दिया।

3 सितम्बर 1857 को आजमगढ़ पर पुनः अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 20 सितम्बर 1857 को मंदुरी में धोखे से आक्रमण कर अंग्रेजों ने विपल्वी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया। अंग्रेजी फौज पासीपुर, कौडिय़ा, बूढऩपुर, कोयलसा आदि गांवों को लूटा और जलाते हुए अतरौलिया पहुंच गयी लेकिन तब तक विपल्वी सेना फतेह बहादुर सिंह के नेतृत्व में बवंडरा में रखी रसद सामग्री जलाकर और अस्त्र-शस्त्र छिपाकर भाग चुकी थी। अंग्रेजी सेना ने प्रतिशोध स्वरूप बवंडरा किले को ध्वस्त कर दिया। तिघरा व माहुल के किले को ध्वस्त कर लूटपाट किया। पृथ्वी पाल सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया लेकिन ठाकुर परगट सिंह ने महराजगंज थाने पर कब्जा कर लिया।

अंग्रेजी सेना के पहुंचने के बाद वह घाघरा पार कर कुंवर सिंह से मिले। राजा बेनी माधव सिंह से उनकी मुलाकात कराकर आजमगढ़ को पुनः स्वतंत्र कराने की योजना बनायी। कुंवर सिंह और बेनी माधव सिंह की सेना अतरौलिया के लिए रवाना हुई। भोजपुर में अंग्रेजी सेना से घमासान युद्ध हुआ। अंग्रेज परास्त होकर भाग खड़े हुए। विपल्वी सेना ने भारी मात्रा में गोला-बारूद हथिया लिया और आजमगढ़ की ओर चल पड़ी। यह सूचना जब इलाहाबाद में लार्ड केनिंग को मिली तो वह ब्रिटिश फौज, गोरखा रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट का दस्ता लार्ड मार्कर और कर्नल डेम्स के नेतृत्व में आजमगढ़ भेजा। दोनों सेनाओं में सेहदा के निकट सिलनी नदी के तलहटी क्षेत्र में भीषण युद्ध हुआ। अंग्रेजी सेना पुनः परास्त होकर भाग खड़ी हुई और आजमगढ़ पर कुंवर सिंह ने अधिकार कर लिया। मारे गये अंग्रेजी सैनिकों की लाशें कम्पनी बाग के निकट (वर्तमान हरिऔध कला भवन) के प्रांगण में दफन की गयी।

इसी बीच कुंवर सिंह ने लखनऊ से आ रही अंग्रेजी फौज को भी हरा दिया और बनारस, गाजीपुर से अंग्रेजों को खदेड़ते हुए 23 अपै्रल 1858 को आगे बढ़ते हुए बिहार के जगदीशपुर में स्वतंत्रता का झंडा फहरा दिया। 23 जून 1858 को राजा फतेह बहादुर सिंह फैजाबाद में महीरपुर कोट के निकट अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हो गये। राजा जसपाल सिंह को लखनऊ में फांसी पर लटका दिया गया। राजा बेनी माधव सिंह फरारी का जीवन व्यतीत करते हुए 1874 में नेपाल भाग गये। 16 साल की फरारी के बाद बेनी माधव सिंह अयोध्या लौटे और आवास बनवाकर वहीं रहने लगे। लगभग 10 साल बाद वह बवंडरा आ गये। वर्ष 1903 में इनका निधन हो गया। इस शहीदों की यादों को संजोने के लिए शासन-प्रशासन स्तर पर आज तक कुछ नहीं किया गया। परिवार के लोगों को इस बात का दर्द भी है कि अतरौलिया में उनके नाम का स्मारक तो दूर एक शहीद द्वार भी नहीं है।

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