पौराणिक कथाओं के मुताबिक सती अनुसुइया एवं अत्रि मुनि के बड़े पुत्र महर्षि दुर्वासा 12 वर्ष की आयुु में चित्रकूट से फूलपुर तहसील क्षेत्र के वर्तमान गांव बनहर मय चक गजड़ी में तमसा-मंजूसा नदी के संगम स्थल पर पहुंचे थे। यहां उन्होंने वर्षों तक तप किया। सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग में महर्षि दुर्वासा उक्त स्थान पर रहे। कलयुग के प्रारम्भिक काल में वे तप स्थल पर ही अन्तर्ध्यान हो गये। वहां आज उनकी भव्य प्राचीन प्रतिमा है। जिस स्थान पर वे शिव की आराधना करते थे वहां आज भी खंडित शिवलिंग मौजूद है। देेश में यही एक स्थान है जहां खंडित शिवलिंग की पूजा होती है।

उक्त शिवलिंग तमसा-मंजुसा के संगम तट पर स्थित है। यह बीच से फटा हुआ है। अभिलेखों के अनुसार शिवलिंग के एक सिरे से जितनी दूरी पर अयोध्या है दूसरे सिरे से उतनी दूरी पर ही काशी। कार्तिक पूर्णिमा पर यहां तीन दिवसीय भव्य मेले का आयोजन होता है जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों से लाखों लोग पहुंचते है। मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमसा मंजुसा के संगम में स्नान से 100 पापों से मुक्ति मिलती है। यहां प्रतिदिन भक्तों की भीड़ देखने को मिलती है।
कथाओं के अनुसार एक बार नदी में स्नान करते समय दुर्वासा ऋषि का वस्त्र नदी की धारा में प्रवाहित हो गया था। उस समय कुछ ही दूरी पर स्नान कर रही द्रोपदी ने अपना आंचल फाड़ कर उन्हें प्रदान किया था। उस समय दुर्वासा ऋषि ने उन्हें वर दिया था कि यह वस्त्र खंड वृद्धि प्राप्त कर तुम्हारी लज्जा के रक्षा का कारण बनेगा। इसी वर का प्रभाव रहा कि महाभारत काल में जब दुशासन ने द्रोपदी की साड़ी खींचनी शुरू की तो वह बढ़ती गयी। इसी प्रकार अनेक भक्तों की इनके द्वारा रक्षा की गयी। शिव मंदिर से कुछ दूरी पर ही गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम भी है जिसे सरकार पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर रही है।

अभिज्ञान शाकुन्तलम में दुर्वासा जी का शाप प्रसिद्ध है। आतिथ्य में त्रुटि रह जाने के कारण इन्होंने कण्व ऋषि के आश्रम में शकुन्तला को शाप दिया था कि उसका पति उसे भूल जायेगा। एक बार भगवान विष्णु स्वयं दुर्वासा ऋषि के शाप से पीड़ित हुए थे। माना जाता है कि जब दुर्वासा जी 12 वर्ष की आयु से कलयुग के उदय काल में अंर्तध्यान होने तक यहीं रहे तो द्रोपदी को श्राप भी यहीं दिया होगा। चुंकि द्रोणाचार्य का आश्रम कुछ ही दूरी पर है इसलिए इस कथा को और बल मिलता है।