वैसे तो मजरूह साहब मूल रूप से सुल्तानपुर जनपद के गजेहड़ी गांव के रहने वाले थे लेकिन उनका जन्म आजमगढ़ जनपद के निजामाबाद कस्बे के सिपाह मुहल्ले में 1 अक्टूबर 1919 को हुआ था। मजरूह के पिता मोहम्मद हसन खान आजमगढ़ जिले के निजामाबाद थाने पर कांस्टेबल थे। उस समय उनका आवास सिपाह मुहल्ले में था। वहीं वह पूरे परिवार के साथ रहते थे। जन्म के बाद पिता ने बेटे का नाम इसरार खान (मजरूह के बचपन का नाम) रखा। इसरार की शिक्षा दीक्षा भी यहीं शुरू हुई जिसका जिक्र उन्होंने खुद अपनी पुस्तक में किया है।
पिता सेवानिवृत्त हुए तो इसरार को भी उनके साथ पैतृक गांव गजहड़ा जाना पड़ा। कहते हैं कि मजरूह को युवा अवस्था में ही एक लड़की से प्रेम हो गया था। उसी के बाद ही उन्होंने शेरो शायरी शुरू की। बाद में वे मजरूह सुल्तानपुरी के रूप में प्रसिद्ध हो गए। वह कम्युनिस्ट आंदोलन से भी कुछ सालों तक जुड़े रहने के कारण दूसरी गतिविधियों से दूर रहते थे। एक मुशायरे में मुंबई पहुंचे, जहां इनको सुनकर प्रोड्यूसर एआर. कारदार इतने प्रभावित हुए कि उनके गुरु जिगर मुरादाबादी के पास जाकर सिफारिश की कि मजरूह हमारी फिल्मों के लिए गीत लिखें। उस समय मजरूह ने इंकार कर दिया था, लेकिन बाद में गीत व शायरी उन्हें प्रसिद्धि दिलाई।
वर्ष 1946 में ‘जब दिल ही टूट गया‘ वर्ष 1962 में चाहुंगा मैं तुझे सांझ सवेरे गीत ने मजरूह सुल्तानपुरी को खूब प्रसिद्धि दिलायी। मजरूह क्षरा सी.आई.डी., चलती का नाम गाड़ी, नौ-दो ग्यारह, तीसरी मंजिल, पेइंग गेस्ट, काला पानी, तुम सा नहीं देखा, दिल देके देखो, दिल्ली का ठग, दोस्ती आदि फिल्मों के लिए लिखा गया गीत काफी प्रसिद्ध हुआ। पंडित नेहरू की नीतियों के खिलाफ एक जोशीली कविता लिखने के कारण मजरूह सुल्तानपुरी को सवा साल जेल में रहना पड़ा। 1994 में उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इससे पूर्व 1980 में उन्हें गालिब एवार्ड और 1992 में इकबाल एवार्ड प्राप्त हुए थे। हुई थी।
BY Ran vijay singh