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मिशन-2022: तेजी से बदल रही मुस्लिम सियासत, यूपी में बढ़ सकती है सपा, बसपा व कांग्रेस की मुश्किल

locationआजमगढ़Published: Nov 12, 2020 04:50:46 pm

अखिलेश राज में कभी अवैसी की आजमगढ़ आने की नहीं मिली थी परमीशन
बिहार चुनाव में जीत के बाद उत्साहित है एआईएमआईएम के कार्यकर्ता, संगठन को मजबूत बनाने पर जोर
एआईएमआईएम की मजबूती से उलेमा कौंसिल को भी उठाना पड़ेगा भारी नुकसान

azamgarh news

प्रतीकात्मक फोटो

पत्रिका न्यूज नेटवर्क

आजमगढ़. बिहार विधानसभा चुनाव में पांच सीटों पर एआईएमआईएम की जीत व कई सीटों पर दमदार प्रदर्शन ने संकेत दे दिया है कि मुस्लिम सियासत अब बदल रही है। मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर मतदाताओं ने पहली बार भाजपा को हराने वाले दल को वोट देने की बजाय मुस्लिमों की पार्टी को तरजीह दी है। इसे एक बड़े संकेत के रूप में देखा जा रहा है। खासतौर पर यूपी के लिए जहां मुसलमानों में भाजपा का भय कुछ दलों के लिए सत्ता की सीढ़ी साबित हो रहा था। बिहार की जीत से उत्साहित ओबैसी ने यूपी और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा का चुके हैं। अगर ओवैसी चुनाव लड़ते हैं तो यहां भी विपक्ष की राह आसान होने वाली नहीं है। कारण कि यूपी उसमें भी खासतौर पर पूर्वांचल में एआईएमआईएम का अच्छा जनाधार है और संघटनात्मक रूप से भी पार्टी काफी मजबूत है। युवा मुस्लिम ओवैसी को अपने हीरो के रूप में देखता है। यही वजह है कि जब यूपी में सपा की सरकार थी तो ओवैसी को आजमगढ़ व आसपास के जिलों में आने से रोकने की पुरजोर कोशिश की गयी।

वर्ष 1980 में बीजेपी का उदय हुआ लेकिन यह एक दशक तक खुद को यूपी में स्थापित करने में नाकाम रही। वर्ष 1990 में राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को नई ऊर्जा प्रदान की तो उसपर सांप्रदायिक होने का ठप्पा भी लगा। आज भी यह ठप्पा बरकरार है। पिछले तीन दशक में यहां जितने भी चुनाव हुए उसे सेक्युलर बनान सांप्रदायिकता का रंग देने की पूरी कोशिश हुई। वहीं यहां का मुस्लिम मतदाता हमेशा उसकी के साथ खड़ा हुआ जो दल उसे बीजेपी को हराता नजर आया।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद परिस्थितियां थोड़ी बदली। सपा बसपा को वोट करने वाला अति पिछड़ा व अति दलित जहां बीजेपी के साथ खड़ा हो गया वहीं मुस्लिमों का रुख भी कहीं न कहीं बीजेपी के प्रति नरम हुआ। खासतौर पर तीन तलाक कानून के बाद कुछ प्रतिशत महिलाओं में बीजेपी के प्रति विश्वास बढ़ा।

यूपी में हाल में सात सीटों पर हुए विधानसभा चुनाव को सत्ता का सेमीफाइनल माना गया लेकिन यहां विपक्ष को करारी हार मिली। विपक्ष के सामने चुनौती है कि वह 2022 के चुनाव के पहले अति दलित व अति पिछड़ों पर बीजेपी की पकड़ को कमजोर करे और मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ जोड़कर रखे। इसमें दो राय नहीं कि मुस्लिम बीजेपी के साथ खुलकर खड़ा नहीं होगा। वह किसी अन्य दल का ही साथ देगा लेकिन किसका। बिहार के चुनाव परिणाम ने सपा, बसपा और कांग्रेस को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।

कारण कि इसमें से कोई भी दल बिना मुस्लिम मतदाताओं की मदद से सत्ता की सीढ़ी नहीं चढ़ सकता है। पूर्व में भी देखा गया है कि जब 2007 में मुस्लिम बसपा के साथ गया तो बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गयी और 2012 में मुस्लिम सपा को गले लगाया तो अखिलेश यादव सीएम बन गए। बिहार के परिणाम से उत्साहित ओवैसी ने यूपी चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। इससे विपक्ष की बेचैनी बढ़ हुई है।

कारण कि इन्हें पता है कि ओवैसी के आने के बाद मुस्लिम मतदाताओं में बिखराव रोकना इनके लिए आसान नहीं होगा। यही वजह है कि जब अखिलेश सरकार में आजमगढ़ में सांप्रदायिक दंगा हुआ तो ओवैसी को सरकार ने आजमगढ़ आने नहीं दिया। यही नहीं 2016 से 2018 के मध्य ओवैसी ने आजमगढ़ में कार्यक्रम के लिए कई बार अनुमति मांगी लेकिन उन्हें नहीं मिली। इस दौरान ओवैसी का जनाधार यहां तेजी से बढ़ा। खासतौर पर युवा वर्ग में ओवैसी लोकप्रिय होते गए।
अब अगर ओवैसी की पार्टी यूपी विधानसभा चुनाव लड़ती है तो उन्हें कार्यक्रम से रोकना किसी भी दल के लिए मुमकिन नहीं होगा। ओवैसी पूर्वांचल की मुस्लिम बाहुल्य दो दर्जन से अधिक सीटों को सीधे तौर पर प्रभावित कर सकते है।

राजनीतिक विश्लेषण बताते हैं कि अब तक मुस्लिमों के वोट उस दल को पड़ते रहे हैं जो भाजपा के मुकाबले में मजबूती से खड़ा हो लेकिन बिहार के सीमांचल में पांच सीटों पर यह सोच नहीं दिखी है। एआईएमआईएम जो उस क्षेत्र की जानी-पहचानी पार्टी भी नहीं थी। उसने पांच सीटें जीतकर मुस्लिम राजनीति के परंपरागत रूप को तोड़ा है। इसमें साफ संदेश है कि मुस्लिम वोटर चाहते हैं कि मुस्लिमों की आवाज को उठाने वाली पार्टी को पहली प्राथमिकता दी जाए। भले ही उसकी सरकार बनाने में कोई हिस्सेदारी हो या नहीं। मुस्लिमों का एक बड़ा तबका ओवैसी की भाषा को पसंद करता है, इसलिए भी उन्हें इसका फायदा मिल सकता है।

ऐसे में अगर ओवैसी यूपी चुनाव लड़ते हैं और बिहार जैसी मानसिकता यहां के मुस्लिम मतदाताओं की रही तो विपक्ष को नुकसान उठाना पड़ सकता है। खासतौर पर सपा और बसपा पर जिसकी हार जीत में मुस्लिम मतदाता हमेशा से बड़ा अंतर पैदा करते रहे है। रहा सवाल बीजेपी का तो मतों का विभाजन उसके लिए हमेशा से मुफीद साबित हुआ है और आगामी चुनाव में भी हो सकता है।

BY Ran vijay singh

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